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________________ गज कुमार-गन्धकुटी जैन पुराणकोश : १०७ गजकुमार वसुदेव तथा देवको से उत्पन्न, कृष्ण का अनुज । कृष्ण ने ___ गणाग्रजी-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३५ अनेक राजकुमारियों के अतिरिक्त सोमशर्मा ब्राह्मण की क्षत्रिय स्त्री गणाधिप-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३५ से उत्पन्न सोमा नामक कन्या के साथ इसका विवाह कराया। हपु० गणित-अंक-विद्या। यह एक विज्ञान है। वृषभदेव ने ब्राह्मी और ६०.१२६-१२८ यह तीर्थंकरों का चरित्र सुनकर संसार से विरक्त सुन्दरी दोनों पुत्रियों को अक्षर, संगीत, चित्र आदि विद्याओं के हो गया। अपनी पुत्री के त्याग से उत्पन्न क्रोधाग्निवश सोमशर्मा ने साथ इसका अभ्यास कराया था । हपु० ८.४३, ९.२४ इसके सिर पर तोव अग्नि प्रज्वलित की थी, किन्तु इस उपसर्ग को ___ गणिनी-मुख्य आर्यिका । मपु० २४.१७५ सहकर इसने शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों का क्षय किया। यह अन्तकृत्- गणेश-देवों से सेव्य गणधर । मपु० ५९.१०८, पपु० ३.२४ दे० केवलो होकर संसार से मुक्त हो गया। हपु० ६१.२-१० गणधर गजवन्त-गजदन्ताकार चार पर्वत । सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन गणोपग्रहण-गृहस्थ की त्रेपन गर्भान्वय क्रियाओं में अट्ठाईसवी क्रिया । और माल्यवान् ये चार पर्वत गजदन्ताकार है इसलिए गजदन्त कह- इसमें आचार्य श्रुताथियों को श्र ताभ्यास कराता है, दीक्षार्थियों को लाते हैं । मपु० ५.१८० दीक्षित करता है और धर्माथियों को धर्म का ज्ञान देता है । इससे गजपुर-(१) विजया पर्वत के दक्षिण भाग में स्थित एक नगर । असत् वृत्तियों का निवारण और सत्वृत्तियों का प्रचार-प्रसार होता यहाँ श्रीपाल आया था । मपु० ४७.१२८, हपु० ३४.४३, ४६.१ है । मपु० ३८.५५-६३, १६८-१७१ पापु० २.२४७ गण्य-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० (२) हस्तिनापुर । शान्ति, कुन्थु और अर इन तीन तीर्थंकरों की २४.४२१, २५.१३५ जन्मभूमि । यहीं पर अन्धकवृष्णि का पूर्वजन्म का जीव गौतम उत्पन्न गण्यपुर-पश्चिम पुष्कराध के पश्चिम विदेह क्षेत्र में स्थित रूप्याचल हुआ था । पपु० २०.५२-५४, हपु० १८.१०३ की उत्तरश्रेणी का एक नगर । हपु० ३४.१५ गजघाण-विद्यामय बाण । इसे सिंहबाण से रोका जाता था। मपु० ४४.२४२ पतत्रास-राम का एक सिंहरथी सामन्त । पपु० ५८.११ गजवती-भरतक्षेत्र के वरुण पर्वत से बहने वाली एक नदी । यह हरि गतभ्रम-राक्षसवंशी एक राजा। स्वर्ग से च्युत होकर यह अनुत्तर द्वती, चण्डवेगा, कुसुमवती और सुवर्णवती नदियों के संगम में जाकर नामक राजा के पश्चात् लंका का स्वामी हुआ था। पपु० ५.३९७ ४०० मिली है । हपु० २७.१२-१४ गजस्वन-राम का सहायक एक विद्याधर । यह विद्याधरों का महारथी । गतस्पृह-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० राजा था । पपु० ५४.३४-३५ २५.१८५ गजांकित ध्वजा-समवसरण की दस प्रकार की ध्वजाओं में एक ध्वजा। गति-(१) यह चार प्रकार की होती है-नरकगति, तिर्यग्गति, इस ध्वजा पर गज की आकृति चित्रित होती थी। मपु० २२.२३४, मनुष्यगति, और देवगति । ये कर्मानुसार प्राप्त होती है। मपु० ३३.९४ ___४.१०,५३,८१, पपु० २.१६१-१६८, ५.३२६ गजारात्याराव-सिंहनाद । जिन-जन्म सूचक चतुर्विध ध्वनियों में एक (२) तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु०१९.१५१ ध्वनि । मपु० ६३.३९९ (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ गण-बारह गणों की बारह सभाएँ। ये समवसरण में होती हैं। मपु० गदागिरि-एक पर्वत । यहाँ भरतेश की सेना ने विश्राम किया था। ३३.१५७ गणग्रह-दीक्षान्वय क्रियाओं में चौथी किया। इसमें देवों का विसर्जन मपु० २९.६८ और देवों की अर्चना की जाती है। मपु० ३८.६४, ३९.४५-४८ । गाविद्या-एक विद्या । इससे युद्ध में जय और कीर्ति मिलती है । पापु० १५.१०, १७-१९ गणज्येष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३५ गणधर-सर्वज्ञ देव के प्रमुख शिष्य । ये समस्त श्रुत के पारगामी, सातों गन्ध-(१) पूजा के अष्ट द्रव्यों में एक द्रव्य । मपु० १७.२५१ (२) सुगन्ध और दुर्गन्ध रूप घ्राणेन्द्रिय का विषय । यह चेतनऋद्धियों के धारक, गणों के ईश और संघ के अधिप होते हैं। इन्द्रभूति आदि ऐसे ही गणधर थे। मपु० २.५१, ४३.६७, ५९. अचेतन वस्तुओं से प्राप्त होता है तथा कृत्रिम और प्राकृतिक के भेद १०८, ७४.३७०-३७२, पपु० ३.२४, हपु० ३.४०-४१ से द्विविध होता है । मपु० ७५.६२०-६२२ . गणनाथ-भक्ति-आचार्य-भक्ति । यह सोलह कारण भावनाओं में एक (३) इक्षुवर समुद्र के दो रक्षक व्यन्तरों में एक भ्यन्तर । हपु० भावना है। इसमें मन, वचन और काय से भावों की शुद्धतापूर्वक आचार्यों की भक्ति की जाती है । मपु० ६३.३२७ गन्धकुटी-समवसरण में तीर्थकर के बैठने का स्थान । यह छ: सौ धनुष गणबद्ध-चक्रवर्ती की आज्ञा का पालन करनेवाले सोलह हजार देव । प्रमाण चौड़ी होती है। इसकी तृतीय कटनी पर कुबेर द्वारा निर्मित ये चक्रवर्ती की निधियों और रलों की रक्षा करते हैं । मपु० ३७. रत्नजटित सिंहासन होता है । यह अनेक शिखरों से युक्त होती है । १४५,६७.७६, हपु० ११.३७ इसमें तीन पीठ होते हैं । इसे पुष्पमालाओं, रत्नों की झालरों तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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