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________________ १०६ : जैन पुराणकोश मंगरक्षित-गज गंगरक्षित-हस्तिनापुर के राजा गंगदेव और उनकी नन्दयशा रानी का नन्द के साथ युगल रूप में उत्पन्न एक पुत्र । हपु० ३३.१४५-१४३ दे० गंग गंगा-(१) रत्नपुर के राजा जहनु की पुत्री। इसका विवाह राजा पाराशर से हुआ था। भीष्म इसका पुत्र था । हपु० ४५.३५, पापु० ७.७७-८० (२) चौदह महानदियों में प्रथम नदी। यह पद्म सरोवर के पूर्व द्वार से निकली है । इसके उद्गम-स्थान का विस्तार छ. योजन और एक कोस तथा गहराई आधी कोस है। यह अपने निर्गम स्थान से पांच सौ योजन पूर्व दिशा की ओर बहकर गंगाकूट से लौटतो हुई दक्षिण की ओर भरतक्षेत्र में आयी है। वज्रमुखकुण्ड से दक्षिण की ओर कुण्डलाकार होकर यह विजयाध पर्वत की गुफा में आठ योजन चौड़ी हो गई है । अन्त में यह चौदह हजार सहायक नदियों के साथ पूर्व लवण समुद्र में प्रवेश करती है। यहाँ इसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजन है । यह जिस तोरणद्वार से लवणसमुद्र में प्रवेश करती है वह तेरानवें योजन तीन कोस ऊँचा तथा आधा योजन गहरा है । मपु० १९.१०५, २७.९, ३२.१३२, ६३.१९५, हपु० ५.१३२-१५०, २६७ नोल पर्वत से निकलकर यह विदेहक्षेत्र के कच्छा आदि देशों में भी बहती है । गन्धावती नदी इसका संगम है। इसी नदी के किनारेकिनारे चलकर भरत की सेना गंगाद्वार तक पहुंची थी। मपु० २९. ४९,७०.३२२, हपु० ५.२६७ अपरनाम जाह्नवी, व्योमापंगा, आकाशगंगा, त्रिमार्गगा, मन्दाकिनी । मपु० २६.१४६-१४७, २७.१०, २८. १७, १९, पपु०१२.७३ गंगाकुण्ड-हिमालय पर्वत के शिखर से पतित नीर द्वारा निर्मित, गंगा का उद्गमस्थान । प्राचीन काल में राज्याभिषेक के लिए इस कुण्ड का जल लाया जाता था । मपु० १६.२०८-२११ गंगाकूट-(१) हिमवान् पर्वतस्थ ग्यारह कूटों में पांचवाँ कूट । इसकी ऊँचाई पच्चीस योजन है। यह मूल में पच्चीस, मध्य में पौने उन्नीस और ऊपर साढे बारह योजन विस्तृत है। गंगा इसी कूट से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। हपु० ५.५४-५६, १३८ (२) गंगादेवी की निवासभूमि । मपु० ४५.१४८ . 'गंगाद्वार-पूर्व-सागर के तट पर स्थित गंगासागर का द्वार । भरत चक्रवर्ती ने समुद्र तक पहुँचकर यहाँ तीन दिन का उपवास किया था और चतुरंग सेना सहित पड़ाव डाला था। इससे विदित होता है कि गंगाद्वार पूर्वी समुद्र के तट पर था। मपु० २८.१३, हपु० ११.२-३ गंगादेवी-गंगाक्टवासिनी गंगा नदी की अधिष्ठात्री देवी । इसने भरतेश के यहाँ आने पर एक हजार स्वर्ण कलशों से उनका अभिषेक किया था तथा उन्हें पादपीठ से युक्त दो रत्न-सिंहासन भेंट किये थे। सुलोचना ने भी पंच नमस्कार के प्रभाव से इस देवी को प्रयन्त करके जयकुमार आदि को नदी के प्रवाह में डूबने से बचाया था। मपु० ३२.१६५-१६८, ३७.१० ४५.१४४-१५१, हपु० ११.५०-५२ गंगाधर-सूर्योदय नगर के राजा शक्रधनु के साले का पुत्र । यह महीघर का भाई था । अपने फूफा शक्रधनु की पुत्री जयचन्द्रा के हरिषेण के साथ विवाहे जाने पर ये दोनों भाई बहुत कुपित हुए । इन्होंने हरिषेण से युद्ध भी किया था किन्तु इससे भयभीत होकर दोनों भाई युद्ध से भाग गये थे । पपु० ८.३५३-३८७ गंगापात-गंगा का उद्गमस्थान । यहाँ गंगादेवी ने भरत का अभिषेक किया था । मपु० ३२.१६३ गंगासागर-वह स्थान जहाँ गंगा ने सागर का रूप धारण कर लिया है। गंगाद्वार यहीं है । हपु० ११.३ गगनचन्द्र-(१) गगनवल्लभ नगर का राजा। यह नगर जश्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्रस्थ पुष्पकलावती देश के विजया पर्वत को उत्तरश्रेणी में स्थित है । गगनचन्द्र गगनसुन्दरी का पति और अमिततेज तथा अमितमति का पिता था । मपु० ७०.३८, ४०, हपु० ३४.३४-३५ (२) बाली के दीक्षागुरु । पपु० ९.९० गगनचर-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी के नित्यालोक नगर के राजा चन्द्रचूल और उसको रानी मनोहारी का सातवाँ पुत्र । मपु० ७१. २४९-२५२ गगनचरी-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी की ५० नगरियों में एक नगरी । मपु० १९.४९, ५३ गगननन्दन-(१) विजया की उत्तरश्रेणी के ६० नगरों में एक नगर । मपु० १९.८१,८७ (२) नित्यालोक नगर के राजा चन्द्रचूल का पुत्र और गगनचर का सहोदर । मपु० ७१.२४९-२५२ गगनमण्डल-विजया की उत्तरथणी का एक नगर । हपु० २२.८५ गगनवल्लभ-जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देश में स्थित पिजयाद्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में एक नगर। मपु० १९.८२, ५९.२९०, ६३.२९, ७०.३९, पपु० ५५.८४-८८, हपु० २२.८५, ३४.३४ गगनवल्लभा-सोलहवें स्वर्ग के अच्युतेन्द्र की महादेवी । हपु० ६०.३८ गगनसन्वरी-विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित गगनवल्लभ नगर के राजा गगनचन्द्र की रानी तथा अमितमति और अमिततेज की जननी । मपु० ७०.३८-४०, हपु० ३४.३५ गगनानन्द-वानरवंशी राजा प्रतिबल का पुत्र, खेचरानन्द का पिता । पपु० ६.२०५ गज-(१) एक सिंहरथासीन सामान्त । यह रावण की सहायता के लिए विशाल सेना लेकर संग्राम में भाग लेने आया था। पपु० ५७.४६ (२) चक्रवर्ती के चौदह रलों में विजया शैल पर उत्पन्न एक सजीव रत्न । मपु० ३७.८४-८६ (३) वस्तु का प्रमाण-विशेष । इसे किष्कु भी कहते हैं। हपु० ७.४५ (४) सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के इकतीस पटलों में उनतीसवाँ पटल । हपु० ६.४७ (५) हाथी । इसका उपभोग राजा के वाहन और उसकी सेना में होता था । मपु० ३.११९, ४.६८, ३०.४८, हपु० १.११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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