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________________ प्रस्तावनाका हिन्दीसार इन आचार्योंके सम्बन्धमें जो बातें प्रचलित थीं उनका प्राचीन आधार क्या था यह हमें ज्ञात नहीं है। पात्रकेसरीके सम्बन्धमें उन्हें समन्तभद्रके देवागम स्तोत्रकी प्राप्ति, अनुमानकी अन्यथानुपनत्वरूप परिभाषा, उनके द्वारा जिनेन्द्र गुण संस्तुतिकी रचना आदि विवरण काफी आकर्षक हैं । अकलंककी कथामें दिया 'नाहङ्कार' आदि पद्य श्रवणबेलगोलाके शिलालेखमें पाया जाता है तथा 'पूर्व पाटलीपुत्र' आदि पद्य उक्त शिलालेखोंमें नहीं पाया जाता । किन्तु स्वयंभुस्तोत्रकी कुछ प्रतियोंके अन्तमें मिलता है। समन्तभद्रकी कथामें कहा है कि शिवकोटि जैनधर्मका अनुयायी बन गया और उसके साधुजीवन स्वीकार करने मूलाराधनाकी रचना की। कथाकोशकी भाषा सम्बन्धी विशेषताएँ प्रभाचन्द्रने संस्कृतिकी जो शैली और वाक्य-विन्यास अपनाये हैं वे प्रायः प्रचलित ही हैं। उनमें से अधिकांशका मूल्यांकन इसी अनुमानपर किया जा सकता है कि लेखकके सम्मुख कुछ प्राकृत आधार उपस्थित थे । इसकी पृष्ठभूमिको समझनेके लिए पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे मेरे बृहकथाकोश ( बम्बई १९४३ ) और पुण्यास्रवकथाकोश ( शोलापुर १९६४) की प्रस्तावना देखें । इस विषयपर वर्तमानमें बी. जे. संडेसरा और जे. पी. ठाकरका एक उत्तम ग्रन्थ ( Lexicographical Studies in Jain Sanskrit ) जो ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट बड़ौदा १९६२ में प्रकाशित हुआ है, दृष्टव्य है । [ आगे विद्वान् सम्पादकने बहुत विस्तारसे उद्धरण देकर इसे स्पष्ट किया जो उनकी अँगरेजी प्रस्तावनासे ज्ञातव्य है ] ग्रन्थकार प्रभाचन्द्र आराधना कथा प्रबन्धकी उपलब्ध एक मात्र प्रतिसे यही अनुभवमें आता है कि एक ही प्रभाचन्द्रने पूर्ण ग्रन्थको रचा है जो दो भागोंमें विभक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016058
Book TitleKathakosha
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorA N Upadhye
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages216
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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