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________________ कथाकोशः अन्तमें भी वही पद्य है जो प्रथम भाग के अन्त में आता है । अन्तिम सन्धिमें कहा है कि भट्टारक (श्री) प्रभाचन्द्र रचित कथाकोश समाप्त होता है । इसमें सन्देह नहीं है कि दूसरा भाग पीछेसे जोड़ा गया है । इसमें कोई स्पष्ट प्रभाण नहीं है कि दोनों भाग एक ही प्रभाचन्द्रके द्वारा पूर्व और उत्तर कालके रचे गये हैं या प्रभाचन्द्र पण्डित और भट्टारक प्रभाचन्द्रके नाम के दो व्यक्तियोंके द्वारा रचे गये हैं । मुझे प्रथमकी ही अधिक सम्भावना प्रतीत होती है । ब्र. नेमिदत्तने ( ईसाकी सोलहवीं शताब्दीका प्रारम्भ ) अपने कथाकोश में किंचित् परिवर्तनके साथ उक्त कथाकोशका ही अनुसरण किया है । और ८२वीं कथामें कुछ संकेत भी मिलते हैं । अतः यह बहुत सम्भव है कि अपने कथाकोशके दो विभागोंके लिए उत्तरदायी स्वयं प्रभाचन्द्र हैं । जैसा कि मैंने बृहत्कथाकोश ( सिंघी जैन सिरीज १९४३ ) को प्रस्तावना में चर्चा की है, ये कथाएँ मूलमें आराधनाकी टीकाओं में थीं, उनमें से बहुत-सी अपराजित सूरि और पं. आशाधरको ज्ञात थीं । यह बहुत सम्भव है कि प्राकृत संस्कृत, और कन्नड़की ये टीकाएँ, अमुक गाथासे सम्बद्ध कथाओंको लेकर परस्परमें भेदको लिये हुए हों । प्रभाचन्द्रने प्रथम एक आधारको लेकर ९० कथाओंकी रचना की, किन्तु पश्चात् जब वह दूसरी टीकासे परिचित हुआ अथवा एक कथाकोशके परिचयमें आये जिसमें अधिक कथाएँ थीं तो उन्होंने उसमें दूसरा भाग सम्मिलित किया । इसीसे कुछ कथाओं में पुनरुक्ति पायी जाती हैं । बृहत्कथाकोशकी मेरी प्रस्तावना में यह दिखलाया है कि हरिषेण, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और नेमिदत्तके कथाकोश भग. आराधनासे निकट सम्बद्ध हैं । ३४ N भग. आरा से सम्बद्ध कथाकोशोंके साथ प्रभाचन्दके इस प्रबन्धकी तुलना करना उचित होगा । बृहत्कथाकोशकी प्रस्तावना में मैंने इस सम्बन्धमें कुछ प्रयत्न किया भी था । प्रभाचन्दकी कथा नं. १, २, ४, प्रमुख आचार्य, पात्रकेसरी, अकलंक, समन्तभद्रसे सम्बद्ध है । प्रभाचन्द्र के समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016058
Book TitleKathakosha
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorA N Upadhye
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages216
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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