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________________ पुण्यास्रवकथाकोशम् [२-६, १४ : स सकोपस्तथैव तपः कर्तुं लग्नः जन्मान्तरविरोधादित्युक्तम् । तयोः कथं विरोधः इति भव्यप्रश्ने यथास्मरणं ब्रवीमि । तथा हि-अस्मिन् भरते सुरम्यविषये पोदनपुरे राजारविन्दो देवी लक्ष्मीमती । तन्मन्त्री द्विजो विश्वभूतिः, भार्यानुन्धरी', पुत्री कमठ-मरुभूती। तत्र ज्येष्ठोऽमनोज्ञ इतरः प्रिय इति वसुंधरीनामकन्यया परिणायितवान् पिता। स एकदा स्वशिरसि पलितमालोक्य मरुभूतिं राज्ञः समर्प्य स्वपदे निधाय दीक्षितः। मरुभूतिभूपस्यातिप्रियोऽभूत् । एकदा राजा वज्रवीर्यमण्डलेश्वरस्योपरि गतः । इतः कमटो निरङ्कशो राजसिंहासने उपाविशत् । अहं राजेति अगम्यगमनादिकं कर्तुमारभत । पकदा स्वभ्रातुः प्रियां विलोक्य मदनेषुभिरतिपीडितो वने लतागृहेऽतिष्ठत् । तं कलहंसो नाम सखापृच्छत् किमिति तवेयमवस्थेति । कथिते स्वरूपे सखा वसुंधरीनिकटमियायावदच्च 'हे वसुंधरि, वने कमठस्य महदनिष्टं वर्तते' इति । अनिष्टस्वरूपमजानती तत्र ययौ । सोऽनेकवचनविज्ञानस्तामभ्यन्तरीकृत्य सिषेवे । इतः शत्रु निर्जित्यागतो राजा तत्कृतं सर्व बुबुधे, मरुभूतिरपि । नृपो मरुभूतिना मन्त्रमालोचितवान् 'कमठ एवंविधान्याये वर्तते, तस्य किं कर्तव्यम्' इति । स व्यामोहेनाब्रवीदेव', किमेवं करोति कमठो दुष्टवचनं मा ग्रहीः । दोनों धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। फिर वह तापस जन्मान्तरके वैरसे क्रोधयुक्त होकर पुनः उसी प्रकारसे तप करने में लग गया, ऐसा कहा गया है । उन दोनोंमें विरोध कैसे हुआ, ऐसा भव्यके द्वारा पूछे जानेपर स्मरणके अनुसार कहता हूँ- इस भरत क्षेत्रके भीतर सुरम्य देशमें पोदनपुर नामका नगर है । वहाँ अरविन्द राजा राज्य करता था। इसकी पत्नीका नाम लक्ष्मीमती था । उक्त राजाका मंत्री विश्वभूति नामका एक ब्राह्मण था । इसकी पत्नीका नाम अनुन्धरी था । इनके कमठ और मरुभूति नामके दो पुत्र थे। इनमें बड़ा पुत्र अयोग्य तथा दूसरा योग्य था। छोटे पुत्रके योग्य होनेसे ही पिताने उसका विवाह वसुन्धरी नामकी एक कन्याके साथ करा दिया। विश्वभूतिने एक दिन अपने शिरके ऊपर श्वेत बालको देखा । इससे उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने मरुभूतिको राजाके लिए समर्पित करके उसे अपने पद ( मन्त्री) के ऊपर प्रतिष्ठित कराया और स्वयं जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। मरुभूति अपने सद्व्यवहारके कारण राजाका अतिशय प्रिय हो गया। एक समय राजाने वज्रवीर्य राजाके ऊपर चढ़ाई की। इधर कमठ निरंकुश होता हुआ राजसिंहासनके ऊपर बैठ गया । वह अपनेको राजा मानकर अयोग्य आचरण करने लगा। एक दिन वह अपने अनुजकी पत्नी वसुन्धरीको देखकर कामबाणसे पीड़ित होता हुआ वनमें लतागृहके भीतर स्थित हुआ। कमठका एक कलहंस नामका मित्र था। उसने उसकी इस दुरवस्थाको देखकर उसका कारण पूछा। तब कमठने उससे अपने मनकी बात कह दी । तब उसके मनोगत भावको जानकर कलहंस वसुन्धरीके पास गया और उससे बोला कि हे वसुन्धरी वनमें कमठका महान् अनिष्ट हो रहा है । यह सुनकर और अनिष्टके रहस्यको न जानकर वसुन्धरी वहाँ चली गई। तब कमठने उसे अपने वचनोंकी चतुराईसे भीतर बुलाकर उसके साथ विषयसेवन किया। इधर राजा अरविन्द वज्रवीर्यको जीतकर जव वापिस आया तब उसे कमठके उक्त असदाचरणका समाचार ज्ञात हुआ । साथ ही मरुभूतिको भी उसके उस निन्द्य आचरणका पता लग गया । तब राजाने मरुभूतिसे पूछा कि कमठ इस प्रकारके अन्यायमें प्रवृत्त हो रहा है, उसके सम्बन्धमें क्या किया जाय ? इसपर मरुभूतिने भ्रातृमोहके वशीभूत होकर उत्तर दिया कि हे देव ! कमठ क्या कभी ऐसा कर सकता १. फ भार्यानुधंरी श भार्यानुधरी । २. श कन्याया। ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श राजासिंहासने । ४. ब उपविशत् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शतं कमळं कलहंसो। ६. फ व्यामोहेन व्यब्रवीत् । देव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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