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________________ : २-६, १४ ] २. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६ निमित्तेन बहुभिर्दीक्षितः संन्यासेन तनुं विहाय सर्वार्थसिद्धिं जगामेति । एवं मिथ्यादृष्टिनरतिरश्चोऽपि पञ्चपदफलेन स्वर्गे भवन्ति चेत्सद्दृष्टः किं वक्तव्यम् ॥४-५॥ [१४] फणी सभार्यो भुवि दग्धविग्रहः प्रबोधितोऽभूद्धरणः सरामकः । स पञ्चभिः पार्श्वजिनेशिनां पदै स्ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥६॥ अस्थ कथा-वाराणस्यां राजाश्वसेनो देवी ब्रह्मदत्ता पुत्रस्तीर्थकरकुमारः पार्श्वनाथः। स एकदा हस्तिनमारुह्य पुरबाही यावत् परिभ्रमति तावदेकस्मिन् प्रदेशे पञ्चाग्नि साधयंस्तापसोऽस्थात् । तं विलोक्य कश्चिद् भृत्योऽवदद्देवायं विशिष्टं तपः करोतीति । कुमारोऽब्रवीत् , अज्ञानिनां तपः संसारस्यैव हेतुरिति श्रुत्वा भौतिको जन्मान्तरविरोधात् कोपाग्न्युद्दोपीकृतान्तरङ्गोऽभणत्-- हे कुमार, कथमहमक्षानीति । ततो हस्तिन उत्तीर्य कुमारस्तत्समीपे भूयोक्तवान् – यदि त्वं ज्ञानी तहस्मिन् दह्यमाने काष्ठे किमस्तीति कथय । सोऽत्रवोन्न किमप्यस्ति । तर्हि स्फोटय । ततोऽपिप्यस्फोटयत् । तदन्ते अर्धदग्धं कण्ठगतासुफणियुगमस्थात् । तस्मै पञ्चनमस्कारान् ददौ नाथस्तै त्फलेन तौ धरणेन्द्र पद्मावत्यौ जाते। दीक्षा ग्रहण कर ली । अन्तमें वह संन्यासपूर्वक शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुआ । इस प्रकार जब पंचनमस्कारमन्त्रके प्रभावसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च भी स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं तब भला सम्यग्दृष्टि मनुष्यके विषयमें क्या कहा जाय ? उसे तो स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त होगा ही ॥४॥ जिस सर्पका शरीर सर्पिणीके साथ अग्निमें जल चुका था वह पार्श्व जिनेन्द्रके द्वारा दिये गये पंचनमस्कार मन्त्रके पदोंके प्रभावसे प्रबोधको प्राप्त होकर उस सर्पिणी (पद्मावती) के साथ धरणेन्द्र हुआ। इसीलिए हम उन पंचनमस्कारमन्त्रके पदोंमें अधिष्ठित होते हैं ॥५॥ इसकी कथा- वाराणसी नगरीमें राजा अश्वसेन राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम ब्रह्मदत्ता था । इन दोनोंके पार्श्वनाथ नामक तीर्थंकर कुमार पुत्र उत्पन्न हुआ। वह किसी समय हाथीके ऊपर चढ़कर घूमनेके लिए नगरके बाहर गया था । वहाँ एक स्थानपर कोई तापस पंचाग्नि तप कर रहा था । उसको देखकर किसी सेवकने भगवान् पार्श्वनाथसे कहा कि हे देव ! यह तापस विशिष्ट तप कर रहा है । इसे सुनकर तीर्थंकर कुमारने कहा कि अज्ञानियोंका तप संसारका ही कारण होता है । कुमारके इस कथनको सुनकर जन्मान्तरके वैरसे तापसका हृदय क्रोधरूप अग्निसे उद्दीप्त हो उठा । वह बोला कि हे कुमार ! मैं अज्ञानी कैसे हूँ ? तब कुमारने हाथीके ऊपरसे उतरकर और उसके पास जाकर उससे फिरसे कहा कि यदि तुम ज्ञानवान् हो तो यह बतलाओ कि इस जलती हुई लकड़ीके भीतर क्या है । इसपर तापसने कहा कि इसके भीतर कुछ भी नहीं है । तब पार्श्व कुमारने उससे उस लकड़ीको फोड़नेके लिए कहा । तदनुसार तापसने उस लकड़ीको फोड़ भी डाला । उसके भीतर अधजला होकर मरणोन्मुख हुआ एक सर्पयुगल स्थित था। तब पार्श्व तीर्थंकर कुमारने उक्त युगलके लिए पंचनमस्कारपदोंको दिया। उसके प्रभावसे वे १. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श स्वर्गो भवति । २. प-सदृष्टे फ सदृष्टिः । ३. ब किं पृष्टव्यं । ४. ५ जिनेशिता, फ ब जिनेशिना। ५. फ यदि ततो। ६. फ कोपान्योद्दीपीकृतांतरो। ७. फ सोऽब्रवीत् तत्किमपि नास्ति । कुमारोक्तः । तर्हि । ८. फ स्फुटयन् ब स्फुटन् । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शं गतायुर्फणियुग। १०. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श नागस्त। ११. ब जात्ये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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