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________________ : २-६, १४ ] २. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६ ७७ राजावादीत्- सुनिश्चितदोषस्य तस्य शास्ति करिष्यामि, त्वं खेदं मा कुर्विति संबोध्य तं गृहं प्रेष्य तस्य दोषं निश्चित्य गर्दभारोहणादिकं विधाय कमठो निर्धाटितः। स च गत्वा भूताद्री तापसो भूत्वा शिलोद्धरणं तपः कर्तुं लग्नः । इतरस्तच्छास्तिविधानेऽतिदुःखी बभूव । मरुभूतिस्तच्छुद्धिमवाप्य राजानं विज्ञप्तवान्-देव, कमठः तपः कुर्वन्नास्ते. गत्वा विलोक्यागच्छामीति । नृपोऽपृच्छत् 'किंरूपं तपः स करोति'। सोऽवोवद्भौतिकरूपम् । तर्हि मागमः त्वमिति राज्ञा निषिद्धोऽप्येकाकी जगाम । तं विलोक्याभणत्-- हे तात, मया निषिद्धेनापि राज्ञा यद् विहितं तत्सर्व क्षन्तव्यमिति पादयोः पपात । तदा कमठस्त्वयैव सर्व विहितमिति भणित्वा शिलां तन्मस्तकस्योपरि निक्षिप्यामारयत्तम् । स मृत्वा कूर्चनामसलकीवने वज्रघोषनामा महान् हस्ती जातः। इतरस्तापसैनिर्धाटितः सन् भिल्लानां मिलित्वा चोरयन् ग्राम्यैर्हतः । तत्रैव वने कुक्कुटसोऽजनि । राजैकदाधिज्ञानिनं मुनि पप्रच्छ 'मन्त्री किमिति नागतः' इति । तेन स्वरूपं निरूपितं निशम्य पुरं प्रविश्य कियत्कालं राज्यानन्तरमभ्रं विलीनमभिवीक्ष्य दीक्षितः सकलागमधरो भूत्वा पूर्वोक्तकूर्चकवने वेगावतीहै ? दुष्टके वचनको ग्रहण न करें। यह सुनकर राजा बोला कि कमठका अपराध निश्चित है, मैं उसके लिए दण्ड दूंगा, इसके लिए तुम्हें खिन्न न होना चाहिए । इस प्रकारसे सम्बोधित करके राजाने मरुभूतिको घर भेज दिया और फिर कमठके अपराधको निश्चित करके उसे गर्दभारोहण आदि कराया तथा अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया। तब कमठ भूताचल पर्वतके ऊपर-गया और वहाँ तापस होकर शिलोद्धरण ( शिलाको उठाकर ) तपके करने में प्रवृत्त हो गया। उस समय मरुभूति उसको दण्डित किये जानेके कारण अतिशय दुःखी हुआ। उसे जब कमठका समाचार मिला तब उसने राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! कमठ तपश्चरण कर रहा है, मैं जाता हूँ और उससे मिलकर वापिस आता हूँ। तब राजाने उससे पूछा कि वह किस प्रकारका तप कर रहा है ? उत्तरमें मरुभूतिने कहा कि वह भौतिक रूप ( भूतिको लगाकर किया जानेवाला) तपको कर रहा है। तब तुम उसके पास मत जाओ, इस प्रकार राजाके रोकनेपर भी मरुभूति उसके पास अकेला चला गया। वहाँ कमठको देखकर मरुभूतिने कहा कि हे पूज्य ! मेरे रोकनेपर भी राजाने जो कुछ किया है उस सबके लिए क्षमा कीजिये । यह कहता हुआ वह उसके चरणों में गिर गया। फिर भी कमठने यह कहते हुए कि वह सब तूने ही किया है, उसके मस्तकपर शिलाको पटककर उसे मार डाला। वह इस प्रकारसे मरकर कूर्च नामक सल्लकीवनमें वज्रघोष नामका विशाल हाथी हुआ। उधर जब कमठने शिला पटककर अपने भाईको मार डाला तब दूसरे तापसोंने उसे आश्रमसे निकाल दिया। फिर वह भीलोंके साथ मिलकर चोरी करने लगा । तब ग्रामीण जनोंने उसे मार डाला। वह इस प्रकारसे मरकर उसी वनमें कुक्कुट सर्प हुआ। उधर मरुभूति जब वापिस नहीं आया तब राजा अरविन्दने किसी समय अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा कि मंत्री मरुभूति क्यों नहीं आया है । उत्तरमें मुनिराजने जो उसके मरनेका वृत्तान्त कहा उसे सुनकर राजा नगरमें वापिस आ गया। तत्पश्चात् उसने कुछ समय और भी राज्य किया । एक समय वह देखते-देखते ही नष्ट हुए मेधको देखकर दीक्षित हो गया। वह समस्त श्रुतका पारगामी हुआ। किसी समय वह पूर्वोक्त कूर्चक वनमें वेगावती नदीके किनारे एक १.श त्वमति राजा । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श वज्रघोषो नाम। ३. फ बस। ४. बविलीनमवीक्ष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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