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________________ :१-८] १. पूजाफलम् ८ ५१ मुचितम् । श्रेष्ठी अभणत् 'ने' ।२। अहं कथयामि- गङ्गापूरेण गच्छन् लघुकलभो विश्वभूतितापसेन दृष्टः । आकृष्टः पोषितो लक्षणयुक्तो बभूव । श्रेणिकस्तमग्रहीत् । अङ्कशघातादिकमसहिष्णुः पलाय्य तदावासं प्रविशंस्तापसेन निवारितः सन् कुपितस्तममीरत । किं तस्य तदुचितम् । मुनिरब्रवीत् 'न' ।३। मुनिः कथयति- चम्पायां वेश्या देवदत्ता शुकं पुपोष । सा आदित्यवारदिने वर्तुलिके मद्यं निधायान्तः प्रविष्टा । तदवसरे अन्या काचिदागत्य तत्र विषं चिक्षेप । देवदत्तागत्य यदा पास्यति तदा तन्मरणभीत्या शुकोऽकिरत् । स तया मारितः । एतदपरीक्षितं" तस्याः कर्तुमुचितम् । श्रेष्ठिनोक्तं 'न' ।। श्रेष्ठी कथयति-वाराणस्यां वैश्यः सुवर्णव्यवहारी वसुदत्तस्तुन्दोदर आपणे पोतं संहृत्य गमनोद्यतोऽभूत् । तदवसरे चौरः पलायमानस्तदुदरमाश्रितः। तेन वस्त्रेण पिहितस्तलवराः श्रेष्ठिन उदरमीशमिति तूष्णीं गताः। स च चौरः तत्पोत्तं गृहीत्वा गतः इति । तस्यैतत्कर्तुमुचितम् । मुनिरब्रवीत् 'न'५॥ मुनिः कथयति"-- चम्पायां द्विजसोमशर्मणो द्वे भार्ये सोमिल्ला सोमशर्मा च । सोमिल्लायाः पुत्रोऽजनि । मैं कहता हूँ गंगाके प्रवाहमें एक हाथीका बच्चा बहता हुआ जा रहा था। उसे किसी विश्वभूति नामके तापसने देखा । उसने प्रवाहमेंसे निकालकर उसका पालन-पोषण किया । तत्पश्चात् जब वह उत्तम लक्षणोंसे संयुक्त हुआ तब उसे श्रेणिक राजाने ले लिया। परन्तु वहाँ जाकर वह अंकुशके ताड़न आदिको सहन नहीं कर सका। इसीलिए वहाँसे भागकर वह तापसके आश्रममें प्रविष्ट होना चाहता था, परन्तु तापसने उसे आश्रमके भीतर प्रविष्ट नहीं होने दिया । इससे क्रोधित होकर उसने उक्त तापसको मार डाला। क्या उसे ऐसा करना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं ॥३॥ __ मुनि कहते हैं- चम्पापुरीमें एक देवदत्ता नामकी वेश्या थी। उसने एक तोता पाला था। रविवार के दिन वेश्या कटोरीमें मद्यको रखकर चली गई । इतने में किसी दूसरी स्त्रीने आकर उसमें विष मिला दिया। तोतेने सोचा कि जब देवदत्ता आकर उसे पीवेगी तो वह मर जावेगी । इस भयसे तोतेने उस मद्यको विखेर दिया। इससे क्रोधित होकर वेश्याने उसे मार डाला । इसकी परीक्षा न करके वेश्याका क्या उसे मार डालना उचित था ? सेठने उत्तर दिया- नहीं, उसक वैसा करना उचित नहीं था ॥४॥ सेठ कहता है- वाराणसी नगरीमें वसुदत्त नामका एक सुवर्णका व्यवहार करनेवाला (सराफ)वैश्य था । उसका पेट बड़ा था। एक दिन वह दूकानसे वस्त्र (थैली) में सुवर्णादिको रखकर घर जाने के लिए उद्यत हुआ। इसी समय एक चोर भागता हुआ उसके पेटकी शरणमें आया। सेठने उसे वस्त्रसे छुपा लिया। कोतवाल यह सोचकर कि सेठका पेट ही ऐसा है, चुप-चाप चले गये । तत्पश्चात् वह चोर सेठकी उस थैलीको लेकर चल दिया । क्या उस चोरको वैसा करना योग्य था ? मुनिने उत्तर दिया कि नहीं ॥५॥ मुनि कहते हैं- चम्पा पुरीमें सोमशर्मा ब्राह्मणके सोमिल्ला और सोमशर्मा नामकी दो स्त्रियाँ थीं। उनमें सोमिल्लाके एक पुत्र उत्पन्न हुआ था । वहाँ एक भद्र बैल था । लोग उसे घास १.फ श्रेष्ठी भणत नोचितं, ब श्रेष्ठ्यं भणत्त्वा। २. श न ॥२॥ श्रेष्ठी। अहं । ३. श आकृष्ट पोषितो। ४.फ मसहित्युः पलाय, बमसहिष्ण: पलाज्य। ५. फ ब प्रविश्यंस्तापसेन । ६. फ कुपितः स तमब निवारितः कुपितः सन् तम । ७. फ पपोषीत् । ८. श चतलके । ९. फ ब पश्यति । १०.प शुको अकिरन, बश शको किरन् । ११. फ इत्यपरिक्षतं । १२. श वाणारस्यां। १३. पश प्रोत्तं । १४. फ यतिनोक्तं नाह, ब यतिनोक्तं न । १५. ब शृणु मत्कथां। -----...-.-. -... - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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