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________________ पुण्यानवकथाकोशम् [१-८: श्रेष्ठी कलशमपश्यन् मुनिनिवर्तनार्थ सर्वत्र भृत्यान् प्रस्थापितवान् स्वयमप्येकस्मिन् मार्गे लग्नः विलोक्य व्याघोटितवान् उक्तवांश्च 'कथामेकां कथय'। मुनिरुवाच 'त्वमेव कथय । ततः स्वाभिप्रायं सूचयन् कथयति वाराणस्यां जितशत्रुराजस्य वैद्यो धनदत्तो भार्या धनदत्ता पुत्रौ धनमित्रधनचन्द्रो पित्रा पाठयतापि नापठताम् । मृते पितरि तजीवितमन्येन गृहीतम् । ततस्तावभिमानेन चम्पायांशिवभूतिपाइँ पठताम्। स्वनगरमागच्छन्तौ वने लोचनपोडापीडितंव्याघ्रमद्राक्षिष्टाम् । कनिष्ठेन निवारितोऽपि ज्येष्ठस्तल्लोचनयोरौषधमदात्तदैव पोडानिवृत्तौ स एव भक्षितस्तेनेति। किं तस्योचितमिदम् । मुनिर्वभाण 'नोचितम्' ।१। शृणु मत्कथाम्- हस्तिनापुरे विश्वसेनो नाम राजा। तस्मै केनचिद्वणिजा बलिपलितविनाशकमानस्य वीजं दत्तम् । तेन वनपालाय समर्पितम् । तेन चोप्तम् । तद्वक्षे फलमायातं, खे गृध्र सर्प गृहीत्वा गच्छति सति विषबिन्दुः फलस्योपरि पतितः। ततस्तदृष्मणा फलं पक्वं वनपालकेन राज्ञः समर्पितं, तेन युवराजस्य । तद्भक्षणात् ममार कुमारः। ततो राजा तं तरं खण्डयामासेति । अन्यदोषेकिंतस्य तत्खण्डनलिया था। पश्चात् पुत्रने मुनिके देखते हुए एक दिन उस घड़ेको निकालकर दूसरे स्थानमें रखदिया। इधर चातुर्मासको समाप्त कर मुनि अन्यत्र चले गये। उधर सेठको जब वह घड़ा वहाँ नहीं दिखा तब उसने मुनिको लौटानेके लिए सेवकोंको भेजा तथा वह स्वयं भी एक मार्गसे उनके अन्वेषणार्थ गया। उसने उन्हें देखकर लौटाया और एक कथा कहनेके लिए कहा । तब मुनि बोले कि तुम ही कोई कथा कहो। तब सेठ अपने अभिप्रायको सूचित करते हुए कथा कहने लगा वाराणसी नगरीमें एक जितशत्रु नामका राजा राज्य करता था। उसके यहाँ एक धनदत्त नामका वैद्य था। उसकी पत्नीका नाम धनदत्ता था । इनके धनमित्र और धनचन्द नामके दो पुत्र थे। उन्हें पिताने पढ़ाया भी, परन्तु वे पढ़े नहीं। इससे पिताके मरनेपर उसकी आजीविकाको किसी दूसरेने ले लिया। तब उन्होंने अभिमानके वशीभूत हो चम्पापुरीमें जाकर शिवभूतिके पास पढ़ना प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् विद्याध्ययन करके जब वे अपने नगरके लिए वापिस आ रहे थे तब मार्गमें उन्हें नेत्र-पीड़ासे पीड़ित एक व्याघ्र दिखा। तब छोटे भाई के रोकनेपर भी बड़े भाईने उस व्याघ्रके नेत्रोंमें औषधिका उपयोग किया। इससे उसकी नेत्रपीड़ा नष्ट हो गई । परन्तु उसने उसीको खा लिया । क्या उसे अपने उपकारीको खाना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं, उसको ऐसा करना उचित नहीं था ॥१॥ ___ अब मेरी कथाको सुनो-हस्तिनापुरमें विश्वसेन नामका राजा राज्य करता था। उसके लिए किसी व्यापारीने एक आमका बीज दिया जो कि बलि ( झुर्रियों) और पलित (श्वेत बालों) को नष्ट करके जवानीको स्थिर रखनेवाला था। राजाने उसे मालीको दिया और उसने उसे बगीचेमें लगा दिया । उस वृक्षमें फलके आनेपर आकाशमें एक गीध सर्पको लेकर जा रहा था । उस सर्पके विषकी एक बूंद उक्त फलके ऊपर गिर गई। उसकी गर्मीसे वह फल पक गया । तब वनपालने ले जाकर उसे राजाको दिया और राजाने उसे युवराजको दे दिया। युवराज उसे खाकर तत्काल मर गया। इस कारण राजाने उस वृक्षको कटवा डाला। इस प्रकार दूसरेके दोषसे राजाको उसका कटवाना क्या उचित था ? सेठने उत्तर दिया कि नहीं ॥२॥ १. फ भृत्यावस्थापितवान् । २.५ श व्याधुटितवान् । ३. श तज्जीवनमन्येन । ४. ५ श कनिष्ठेनानि । ५.५ चोकतं । ६. श फलंऽयाते । ७. फ 'तं' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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