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________________ ४६ : १-८] १. पूजाफलम् ८ भणत्विति । ततस्तुंकारीति नाम जातम् । कोपशीलां मां न कोऽपि परिणयति । अनेन सोमशर्मणाहमियं न त्वंकरोमीति व्यवस्थाप्य परिणीयात्रानीता, तथैव पालयति। एकदा नाटयमवलोकयन् स्थितः सोमशर्मा बृहद्रात्रावागत्य हे प्रिये, द्वारमुद्घाटयेत्यव्रवीत् । कोपेन मया नोद्घाटितम् । ततो बृहद्वेलायां तुंकार-इत्युक्तवान् । ततः कोपेनाहं निर्गता पत्तनादपि । चौरैराभरणादिकं संगृह्य भिल्लराजस्य समर्पिता। स मे शीलं खण्डयन् वनदेवतया निवारितस्तेनापि सार्थवाहस्थ समर्पिता। सोऽपि मे शीलं खण्डयितुं न शक्तः, कृमिरागकंबलद्वोपमनैषीत्पारसकुलस्य व्यकैषीच्च। स पक्षे पक्षे शिरामोचनेन मे रुधिरं वस्त्ररञ्जनार्थ गृह्णाति लक्षमूलतैलाभ्यङ्गेन शरीरपीडां च निवारयति । एवं दुःखानि सहमाना तत्रोषिताहम् । अथ यो मे भ्राता धनदेवः स उज्जयिनीशेन तत्र पारसराजसमीपं प्रेषितः । स कृतराजकार्यो मां विलोक्य मोचयित्वानीय सोमशर्मणः समर्पितवान् । जिनमुनिसमीपे कोपनिवृत्तिवतं चागृलत [चागृहाम्] । ततः कोपो न विधीयते इति । तेन तैलेन स मुनि निर्वणं कृतवान् । स तत्रैव वर्षाकालयोगमग्रहीत । श्रेष्ठी निजपुत्र कुवेरदत्तभयेन रत्नपूर्ण ताम्रकलशमानीय मुनिविष्टरनिकटे पूरयित्वा दधानो गर्भगृहस्थेन पुत्रेण दृष्टः । पुत्रेणैकदा मुनौ पश्यति स कलशोऽन्यत्र धृतः। योगं निवर्त्य मुनिर्जगाम । इससे मेरा नाम 'तुकारी' प्रसिद्ध हो गया । क्रोधी स्वभाव होनेसे मेरे साथ कोई भी विवाह करनेके लिए उद्यत नहीं होता था। इस सोमशर्मा ब्राह्मणने 'मैं इसे तू कह करके न बुलाऊँगा' ऐसी व्यवस्था करके मेरे साथ विवाह कर लिया और फिर वह मुझे यहाँ ले आया। पूर्व निश्चयके अनुसार वह मेरे साथ कभी 'तू' का व्यवहार नहीं करता था। एक दिन वह नाटक देखनेके लिए गया और बहुत रात बीत जानेपर घर वापिस आया । उसने आकर कहा कि हे प्रिये ! द्वारको खोलो। परन्तु क्रोधके वश होकर मैंने द्वारको नहीं खोला। इस प्रकारसे जब बहुत समय बीत गया तब उसने मुझे 'तू' कहकर बुलाया। बस फिर क्या था, मैं क्रोधित होकर नगरसे बाहिर निकल गई। तब चोरों ने मेरे आभरणादिकोंको छीनकर मुझे एक भीलोंके स्वामीको दे दिया । वह मेरे सतीत्वको नष्ट करनेके लिए उद्यत हो गया । तब उसे वनदेवताने निवारित किया । उसने भी मुझे एक व्यापारीको दे दिया। वह भी मेरे सतीत्वको भ्रष्ट करना चाहता था. परन्तु कर नहीं सका। तब उसने मुझे कृमिरागकम्बल द्वीपमें ले जाकर किसी पारसीको बेच दिया। वह प्रत्येक पखवाड़े मेरी धमनियोंको खींचकर वस्त्र रंगनेके लिए रुधिर निकालताऔर लक्षमूल तेलको लगाकर शरीरकी पीड़ाको नष्ट किया करता था। इस प्रकार दुःखोंको सहन करती हुई मैं वहाँ रह रही थी। कुछ समय पश्चात् मेरा जो धनदेव नामका भाई था उसे उज्जयिनीके राजाने वहाँ पारसके राजाके पास भेजा था । उसने राजकार्यको करके जब मुझे यहाँ देखा तब किसी प्रकार उससे छुड़ाकर सोमशर्माके पास पहुँचा दिया । पश्चात् मैंने जैन मुनिके समीपमें क्रोधके त्यागका नियम ले लिया। • यही कारण है जो अब मैं क्रोध नहीं करती हूँ। तत्पश्चात् जिनदत्त सेठने उस तेलसे मुनिके घावोंको ठीक कर दिया । मुनिने वहाँपर ही वर्षायोग (चातुर्मासका नियम)को ग्रहण कर लिया। उधर सेठने अपने पुत्र कुबेरदत्तके भयसे रत्नोंसे परिपूर्ण एक ताँबेके घड़ेको लाकर मुनिके आसनके समीपमें भूमिके भीतर गाड़ दिया । जिस समय सेठ उक्त घड़ेको गाड़कर रख रहा था उस समय उसे कुबेरदत्तने गर्भगृह के भीतर स्थित रहकर देख १.प श न त्वंकारीति। २.प शमित्थं। ३.क त्वंकरोति व्यवस्थाया परिणीयात्रानीत, बन करोमीति व्यवस्थया परिणीयात्रानीता। ४. फ त्वंकारमयीत्युक्तवान्, ब तुंकामुईत्युक्तवान् । ५. फ चागृलतां, ब च गृहं । Jain Education Internagonal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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