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________________ ४८ पुण्यात्रवकथाकोशम् [१-८: मृतकशय्यया अस्थात् । तावत्तत्र कश्चित्सिद्धो वेतालविद्यासिद्धयर्थं नर-कपाले क्षीरं तण्डुलांश्च गृहीत्वा तत्र नरमस्तकचुल्ल्यां रन्धुं समायातः । चौरमस्तकद्वयं मुनिमस्तकं मेलयित्वा रन्धनावसरे शिरासंकोचेन मुनेह स्तो मस्तकोपरि समायातः । पतितं कपालं दुग्धेनाग्निर्गतः। सोऽपि पलायितः। सूर्योदये' मुनिनिवेदकेन जिनदत्तश्रेष्ठिनः कथितम् । तेन चानीय स्ववसतिकायां व्यवस्थाप्य वैद्यो भेषजं पृष्टः । सोऽवोचत् सोमशर्मभट्टगृहे लक्षमूलं तैलमस्ति । तेन दग्धो नीरोगो भवेत् । ततोऽगाच्छ्रेष्ठी तद्भार्या तुंकारी तैलं ययाचे । सा बभाणोपरिभूमौ तत्तैलघटा आसते । तत्रैकं गृहाण । श्रेष्ठी तं वण्ठस्य हस्ते ददानो निक्षिप्तवान् । . तयोक्तमपरं गृहाण । तथा तमपि, तृतीयमपि । ततः श्रेष्ठो भीतिं जगाम । तदनु सा बभाषे 'मा भैषीर्यावत्प्रयोजनं तावद् गृहाण'। ततो घटमेकं प्रस्थाप्य श्रेष्ठी तामपृच्छत् 'हे मातः, स्फुटितेषु घटेषु कोपः किमिति न विहितः' इति । ततोऽजल्पत्सा श्रेष्ठिन् ,कोपफलं भुक्तं मया । कथम् । तथाहि आनन्दपुरे द्विजः शिववर्मा भार्या कमलश्रीः 'पुत्रा अष्टौ' अहं च भट्टा नाम पुत्री। यदा मां कोऽपि 'तु' भणति तदा महदनिष्टं भवति। पित्रा पुरे आज्ञा दापिता भट्टां मा कोऽपि 'तुं' वहाँ कोई सिद्ध (मन्त्रसिद्धि सहित) पुरुष वेताल विद्याको सिद्ध करने के लिए मनुष्यकी खोपड़ीमें दूध और चावलों को लेकर आया । उसे मनुष्यके मस्तकरूप चूल्हे पर खीर पकानी थी। उसने दो चोरोंके मस्तकोंके साथ मुनिके मस्तकको मिलाकर और उसे चूल्हा बनाकर उसके ऊपर उसे पकाना प्रारम्भ कर दिया। इस अवस्थामें शिराओं (नसों) के सिकुड़नेसे मुनिका हाथ मस्तकपर आ पड़ा । इससे वह खोपड़ी नीचे गिर गई और दूधके फैल जानेसे आग भी बुझ गई । तब वह (सिद्ध) भाग गया। प्रातःकालमें सूर्यका उदय हो जानेपर किसी मुनिनिवेदकने इस उपसर्गका समाचार जिनदत्त सेठसे कहा । सेठने उन्हें लाकर अपने घरपर रक्खा और औषधके लिए वैद्यसे पूछा । वैद्यने उत्तर दिया कि सोमशर्मा भट्टके घरमें लक्षमूल तेल है। इससे जला हुआ मनुष्य नीरोग हो जाता है । तत्पश्चात् जिनदत्त सेठने सोमशर्माके घर जाकर उसकी पत्नी तुंकारीसे तेलकी याचना की । वह बोली कि ऊपरके खण्डमें उस तेलके घड़े स्थित हैं, उनमें से एक घड़ेको ले लो। सेठ उसे लेकर सेवकके हाथमें दे रहा था कि वह नीचे गिरकर फूट गया । तब उसने कहा कि दूसरा ले लो । परन्तु इस प्रकारसे वह दूसरा और तीसरा घड़ा भी नष्ट हो गया । तब सेठको भय उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वह बोली कि डरो मत, जब तक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है तब तक उसे ग्रहण करो। तब जिनदत्तने एक घड़ेको भेजकर उससे पूछा कि हे माता ! घड़ोंके फूट जानेपर तुमने क्रोध क्यों नहीं किया । उसने उत्तर दिया कि हे सेठ ! मैं क्रोधका फल भोग चुकी हूँ। वह इस प्रकारसे आनन्दपुरमें शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम कमलश्री था । उनके आठ पुत्र और भट्टा नामकी एक पुत्री मैं थी। जब कोई मुझे 'तू' कहता तब बड़ा अनिष्ट (अनर्थ) होता। इसीलिए पिताने नगरमें यह घोषणा करा दी कि भट्टाको कोई 'तू' न कहे । १. फ सूर्योद्गते ब सूर्योद्गमे । २. फ लक्षमूल्य ब लक्षमूल। ३. फ तुंकारी ततो तैलं ययाचे श तुंकारी तैलं याचे। ४. फ आसतः । ५. फ कंठस्य। ६. फ ददानोऽतिक्षिप्तवान् श ददानो निक्षिमवान । ७. फ तमपि द्वितीयं तृतीयमपि ततः श्रेष्ठीब तथा तमपि पतितः श्रेष्ठी। ८. फत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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