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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [१-८ गन्तुं न शक्नोति' । तया जल्पितम्-महामुनयस्तथा न यान्ति । त_दानीमेव यावोऽवलोकयितुम् । तदानेकदीपिकाप्रकाशेनानेकभृत्यादिभिर्ययतुस्तथैवेक्षांचक्राते । तत्र उष्णोदकेन शरीरं प्रक्षाल्य समय॑ तत्पदसेवां कुर्वाणावासतुः । सूर्योदये प्रदक्षिणीकृत्य देवी बभाण-हे संसृतिसागरोत्तारक, उपसर्गो ययौ हस्तावुत्थाप्य गृहाण । ततो हस्तावुद्धृत्योपविष्टो मुनिरुभाभ्यां प्रणतः, उभयोधर्मवृद्धिरस्त्विति उक्तवान् । ततस्तेन चिन्तितम्- अहोऽद्वितीया क्षमा मुनेरिति । स्वशिरश्छेदयित्वास्य पादौ पूजयामीति मनसि धृतम् तेन । ततो मुनिरुवाच-हे राजन् , विरूपकं चिन्तितं त्वया। कथम् । इत्थमिति । राजा जजल्प 'कथमिदं ज्ञातम्' । देवी बभाण-किमिदं कौतुकमालोकि त्वया, स्वातीतभवान् पृच्छ । ततो विज्ञापयांचकारावनिपालो भो प्रभो, कोहंऽपूर्वजन्मनि कथयेति । अचीकथन्मुनिपस्तथाहि_अवार्यखण्डे सूरकान्तदेशे प्रत्यन्तपुरे राजा मित्रस्तत्पुत्रः सुमित्रः । प्रधानपुत्रः सुषेणस्तं राजतनुजो जलक्रीडावसरेऽतिस्नेहेन वापिकायां निमजयति । तस्य महासंक्लेशो भवति । कालान्तरेण सुमित्रो राजासीत्तद्भयेन सुषेणस्तापसो बभूव । एकदा आस्थानगतः सुमित्रः सुषेणमपश्यन् कमपि पृष्टवान् सुषेणः क्वेति । स्वरूपे निरूपिते तत्र जगाम तत्पादयोकहा कि क्या वे उसे (सर्पको) अलग करके नहीं जा सकते हैं। चेलिनीने उत्तर दिया कि महामुनि ऐसा नहीं किया करते हैं । अच्छा चलो, हम दोनों इसी समय वहाँ जाकर देखें । तब वे दोनों अनेक दीपकोंको लेकर बहुत-से सेवकोंके साथ वहाँ गये। उन्होंने वहाँ मुनिको उसी अवस्थामें स्थित देखा । तब उन दोनोंने मुनिके शरीरको गरम जलसे धोया और फिर पूजा करके उनके चरणोंकी आराधना करते हुए वहाँ बैठ गये । जब प्रातःकालमें सूर्यका उदय हुआ तब चेलिनीने मुनिकी प्रदक्षिणा करके कहा कि हे संसार रूप समुद्रसे पार उतारनेवाले साधो ! अब उपसर्ग नष्ट हो चुका है, हाथोंको उठाकर ग्रहण कीजिए। तब मुनि महाराज दोनों हाथोंको उठाकर बैठ गये। फिर दोनोंने मुनिराजको प्रणाम किया और उन्होंने उन दोनोंको 'धर्मवृद्धिरस्तु' कहकर आशीर्वाद दिया। यह देखकर श्रेणिकने विचार किया कि मुनिकी क्षमा अद्वितीय व आश्चर्यजनक है, और अपने शिरको काटकर इनके चरणोंकी पूजा करूँ, ऐसा उसने मनमें विचार किया । तत्पश्चात् मुनि बोले कि हे राजन् ! तुमने अयोग्य विचार किया है। राजाने पूछा कि कैसा विचार । उत्तरमें मुनिराजने कहा कि तुमने अपने शिरको काटनेका विचार किया है । तब श्रेणिकने फिरसे पूछा कि आपने यह कैसे जाना है। इसपर चेलिनीने राजासे कहा कि इसमें आपको कौन-सा कौतुक दिखता है, अपने अतीत भवोंको पूछिए। तब राजाने मुनीन्द्रसे प्रार्थना की कि हे प्रभो ! मैं पूर्व जन्ममें कौन था, यह कहिए। उत्तरमें मुनिराज इस प्रकार बोले ___ इसी आरखण्डमें सूरकान्त देशके भीतर प्रत्यन्त(सूरपुर)पुरमें मित्र नामका राजा राज्य करता था। उसके सुमित्र नामका एक पुत्र था। राजा मित्रके मन्त्रीके भी एक पुत्र था । उसका नाम सुषेण था। इसको राजकुमार सुमित्र जलक्रीड़ाके समय बड़े स्नेहसे बावड़ीमें डुबाता था, परन्तु इससे उसको बहुत संक्लेश होता था। कुछ समयके पश्चात् सुमित्र राजा हो गया । उसके भयसे सुषेण तपस्वी हो गया। एक समय सभा-भवनमें स्थित सुमित्रने सुषेणको न देखकर किसीसे पूछा कि सुषेण कहाँ है । पश्चात् उससे सुषेणके वृत्तान्तको जानकर वह १. ५ श हस्तावुच्चाप्य ब हस्ताबुच्चार्य । २. फ उभयाद्धर्म । ३. ५ श मुनिरिति । ४. चिंतयन् त्वया कथमिच्छसीति । ५. फ त्वयं । ६. प श पृष्टः ब पृछः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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