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________________ : १-८] १. पूजाफलम् ८ लग्नस्तपस्त्याज्यमिति । तेन कथमपि न त्यक्तम् । तदा मम गृह एव भिक्षां गृहाणेति प्रार्थितोऽभ्युपजगाम। स मासोपवासपारणायां तद्गृहमाययो । राजा व्यग्रस्तं' नापश्यत् । द्वितीय-तृतीयपारणयोरपि । निःशक्तं गच्छन्तं तं कश्चिद्ददर्श ललाप च-निकृष्टो राजा स्वयमस्मै भिक्षां न ददाति ददतो निवारयतीति मारितस्तेनायमिति श्रुत्वा कोपेन भिक्षुः किमप्यनवधारयन् पाषाणलग्नपादः पपात ममार व्यन्तरदेवो जज्ञे । राजा तन्मृति विशाय तापसोऽजनि जीवितान्ते व्यन्तरदेवोऽपि बभूव । ततश्च्युत्वा त्वमासीरितरोऽस्याश्चेलिन्याः कुणिकाख्यो नन्दनः स्यादिति निरूपिते जातिस्मरोऽजनि जजल्प च 'जिन एव देवो दिगम्बरा एव गुरवो अहिंसालक्षण एव धर्मः' इत्युपशमसद्दष्टिरभवीत् । अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्वमाश्रित्य सुखेन स्थितः। अन्यदा त्रयो मुनयो देवीभवनं चर्यार्थ समागुः, राजा बभाणीदेवि मुनीन् स्थापय। उभौ सन्मुखमीयतुस्तत्र देव्या त्रिगुप्तिगुप्तास्तिष्ठन्त्वित्युक्ते त्रयोऽपि व्याघुटयोद्याने तस्थुः । वहाँ गया और सुषेणके पैरोंको पकड़कर उससे तपका त्याग करनेको कहा । परन्तु उसने किसी भी प्रकारसे तपको नहीं छोड़ा। तब उसने उससे अपने घरपर ही भिक्षा लेनेकी प्रार्थना की। इसे उसने स्वीकार कर लिया। तदनुसार वह एक मासके उपवासको समाप्त करके पारणाके लिए सुमित्रके घरपर आया। परन्तु कार्यान्तरमें व्यग्र होनेसे राजा उसे नहीं देख सका। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी पारणाके समय भी उसे आहार नहीं प्राप्त हुआ। इससे वह अशक्त होकर वापिस जा रहा था। उसको देखकर किसीने कहा कि देखो राजा कैसा निकृष्ट है। वह स्वयं भी इसके लिए भोजन नहीं देता है और दूसरे दाताओंको भी रोकता है। इस प्रकारसे तो वह उसकी मृत्युका कारण बन रहा है। इसे सुनकर साधुको अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ, तब वह विमूढ़ होकर कुछ भी नहीं सोच सका। इसी क्रोधावेशमें उसका पाँव एक पत्थरसे टकरा गया। इससे वह गिरकर मर गया और व्यन्तर देव उत्पन्न हुआ। राजाको जब उसके मरनेका समाचार ज्ञात हुआ तब वह तापस हो गया । वह भी आयुके अन्तमें मरकर व्यन्तरदेव हुआ। फिर वहाँसे च्युत होकर तुम हुए हो । सुषेणका जीव व्यन्तरसे च्युत होकर इस चेलिनीके कुणिक नामका पुत्र होगा । इस प्रकारसे मुनिके द्वारा प्ररूपित अपने पूर्व भवके वृत्तान्तको जानकर श्रेणिकको जाति-स्मरण हो गया । वह कह उठा कि जिन ही यथार्थ देव हैं, दिगम्बर हो यथार्थ गुरु हैं, और अहिंसा रूप धर्म ही सच्चा धर्म है। इस प्रकारसे वह उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया । तत्पश्चात् वह अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सुखपूर्वक स्थित हुआ । किसी समय तीन मुनि आहारके निमित्त चेलिनीके घरपर आये। तब राजाने चेलिनीसे कहा कि हे देवी! मुनियोंका प्रतिग्रह (पडिगाहन) करो। पश्चात् वे दोनों जाकर मुनियों के सम्मुख गये । उनमें चेलिनीने कहा कि हे तीन गुप्तियोंके परिपालक मुनीन्द्र ! ठहरिए । ऐसा कहनेपर वे तीनों वापिस उद्यानमें चले गये । तब राजाने चेलिनोसे पूछा कि हे देवी! वे ठहरे क्यों नहीं । १. प राजा विग्रस्तं, फ राज्याविग्रहः तं । २. ब -प्रतिपाठोऽयम्। श द्वितीयपारणयोरपि। ३.फ नवधारयत् प श नावधारयन् । ४.फ 'बभूव' नास्ति । ५. फ कुणिकाख्य श कुलिकाख्यो। ६. श दिगम्बर । ७. ५ श रवोभूत् । ८. फ अन्तर्मुहूर्त, ब श अन्तरमुहूर्ते । ९. श देवीदेवीभवनं । १०. श समागु । ११. ब बभाणी देवी श बभाणीद्देवी। १२. ब -प्रतिपाठोऽयम् श देव्याः । १३. प श व्याघुटयरुद्याने । १४. फ तत्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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