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________________ :१-८] १. पूजाफलम् ८ वृद्धयर्थं वाग्निबन्धं चक्रतुः। आवयोः पुत्रपुत्र्योरन्योन्यं विवाहेन भवितव्यमिति प्रतिपन्नमुभाभ्याम् । सागरदत्तवसुमत्योः सर्पः पुत्रो वसुमित्रनामाजनि इतरयो गदत्ता' पुत्री। समुद्रदत्तस्तस्या वसुमित्रस्य च विवाहं चकार । एकदा नागदत्तां यौवनवतीं वीक्ष्य तन्मातारोदीत् मम पुत्र्याः कीदृशो वरोऽभवदिति । तनुजापृच्छत् 'हे मातः, किमिति रोदिषि' । तयोक्तम् 'तवेशं वीक्ष्य रोदिमि'। तनुजा आलपीत्-ममेशो दिवा पिट्टारके सो भूत्वास्ते, रात्रौ दिव्यपुरुषो भूत्वा भोगान्मया सह भुनक्ति । तर्हि तस्मानिर्गते पिट्टारकं मद्धस्ते देहीत्युक्ते तयादत्ता । इतरया दग्धस्ततः स पुरुष एव भूत्वा स्थित इति । एतेऽपि शरीरे दग्धे तत्रैव तिष्ठन्तीति मयैतत् कृतमिति । राजा मनसि को निधाय तूष्णी स्थितः । 'अन्यदा पापद्धिं गच्छन् आतापनस्थं यशोधरमुनि विलोक्य कुक्कुरान् मुमोच । प्रणम्य स्थितान्' विलोक्य तत्कण्ठे मृतसो बद्धस्तदवसरे सप्तमावनौ आयुर्बद्धम् । चतुर्थदिने रात्री देव्याः कथितवांस्तयाभाणि विरूपकं कृतमात्मानं दुर्गतौ निक्षिप्तवान् इति । सोऽभणत् 'त्यक्त्वा किं दत्ता था। इन दोनोंने परस्परके स्नेहको स्थिर रखनेके लिए ऐसा वाग-निश्चय किया कि हम दोनोंके जो पुत्र और पुत्री हो उनका परस्पर विवाह कर दिया जाय । इसे उन दोनोंने स्वीकार कर लिया । पश्चात् सागरदत्त और वसुमतीके वसुमित्र नामका सर्प पुत्र उत्पन्न हुआ तथा अन्य ( समुद्रदत्त और सागरदत्ता ) दोनोंके नागदत्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। तब पूर्व प्रतिज्ञानुसार समुद्रदत्तने नागदत्ता और वसुमित्रका परस्परमें विवाह कर दिया । एक समय नागदत्ता पुत्रीको यौवनवती देखकर उसकी माता (सागरदत्ता 'मेरी पुत्रीको कैसा वर मिला है' यह सोचकर रो पड़ी । तब नागदत्ताने उससे पूछा कि हे माँ ! तू क्यों रोती है। उसने उत्तर दिया कि मैं तेरे पतिको देखकर रोती हूँ। यह सुन पुत्रीने कहा कि मेरा स्वामी दिनमें सर्प होकर पिटारेमें रहता है और रातमें दिव्य पुरुषके रूपमें मेरे साथ भोगोंको भोगता है। यह सुनकर सागरदत्ता बोली कि तो फिर जब तेरा पति उस पिटारेमेंसे निकले तब तू उस पिटारेको मेरे हाथमें दे देना । तदनुसार पुत्रीने वह पिटारा. माँको दे दिया। तब सागरदत्ताने उसे अग्निमें जला दिया। इससे अब वह ( वसुमित्र ) दिन-रात पुरुषके ही स्वरूपमें रहने लगा। इसी प्रकार हे स्वामिन् ! ये आपके गुरु भी शरीरके जल जानेपर उसी विष्णुभवनमें रहेंगे, ऐसा विचारकर मैंने भी यह कार्य किया है। यह चेलिनीका उत्तर सुनकर राजाके मनमें अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ । परन्तु उसे चुप रहने पड़ा । किसी दूसरे समय राजा श्रेणिक शिकारके लिए जा रहा था । मार्गमें उसे आतापनयोगमें स्थित यशोधर मुनि दिखायी दिये। उन्हें देखकर उसने उनके ऊपर कुत्तोंको छोड़ दिया । वे कुत्ते प्रणाम करके मुनिके पासमें स्थित हो गये। उन्हें इस प्रकार स्थित देखकर श्रेणिकने मुनिके गलेमें मरा हुआ सर्प डाल दिया। इस समय राजा श्रेणिकने इस कृत्यसे सातवीं पृथिवीकी आयुका बन्ध कर लिया। इस वृत्तान्तको श्रेणिकने चौथे दिन रात्रिमें चेलिनीसे कहा। तब चेलिनीने श्रेणिकसे कहा कि आपने इस कुकृत्यको करके अपनेको दुर्गतिमें डाल दिया है। इसपर श्रेणिकने १. श इतरोयोनाग। २. ब -प्रतिपाठोऽयम् । प श समुद्रदत्तस्य वसुमित्रस्य च विवाहं चकार, फ समुद्रदत्तसागरदत्तयोस्तस्य वसुमित्रस्य विवाहं चकार । ३. श यौवनमतीं। ४. प श वीक्ष्यरोदीन्मम । ५. फ वरो भवति । ६. ब- प्रतिपाठोऽयम् । पपेट्रारकं फ पिट्टाकं श पिदारकं । ७. फ कृत इति । ८. प श गच्छता [ना ] तापनस्थं । ९. प श विलुलोके । १०. कुक्कुरान् । ११. ब- प्रतिपाठोऽयम्। प फ श स्थित्वा तान् । १२. फ बद्धभावादवसरे ( अर्थसूचकटिप्पणेनानेन भवितव्यम् ) सप्तमोऽवनौ आयुर्बध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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