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________________ ४२ पुण्यास्रवकथाकोशम् [१-८: ममालये श्वो युष्माभिर्भोक्तव्यमभ्युपगतं तेन । अपराह्ने तान् सर्वानाहृयोपवेशिताः । तेषामेकैकामुपानहमपनीय सूक्ष्मांशान् कृत्वा अन्न निक्षिप्य तेषामेव भोक्तुं दत्ताः। तैश्च भुक्त्वा गच्छद्भिरेकैका प्राणहिता न दृष्टा । तदा देवी पृष्टा। साब्रवीत-शानेन ज्ञात्वा गृह्णन्तु । न तथाविधं ज्ञानमस्ति तर्हि दिगम्बरगतिं कथं जानीध्वे । न जानीमः, प्राणहिता दापय । साभणत् 'भवद्भिरेव भक्षिताः कस्मादापयामि । तत्रैकेन छर्दितम् । तत्र चर्मखण्डानि विलोक्य ललजिरे, स्वावासं जग्मुः । अन्यदा राजा अभाणीत्'-देवि, मदीया गुरवो यदा ध्यानमवलम्बन्ते तदात्मानं विष्णुभवनं नीत्वा तत्र सुखेनासते । [तयोक्तम्-] तर्हि तद्ध्यानं पुराबहिर्मण्डपे मे दर्शय यथा त्वद्धर्म स्वीकरोमि । ततस्तन्मण्डपे वायुधारणं विधाय सर्वे तस्थुः । स तस्या अदर्शयत् । सा तान् वीक्ष्य सख्या मण्डपे अग्निमदीपयत् । तस्मिन् प्रज्वलिते तेऽनश्यन् । राजा तस्या रुष्टोऽवदच्च-यदि भक्तिर्नास्ति तर्हि किमेतान् मारयितुं तवोचितमिति । सावोचत्-देव, शृणु कथानकमेकम् । वत्सदेशे कौशाम्ब्यां राजा वसुपालो देवी यशस्विनी श्रेष्ठी सागरदत्तो भार्या वसुमती। अन्योऽपि श्रेष्ठी समुद्रदत्तो वनिता सागरदत्ता। श्रेष्टिनौ परस्परस्नेहकल मेरे घरपर आकर भोजन करें। उसने इसे स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन चेलिनीने उन सबको बुलाकर महलके भीतर बैठाया । तत्पश्चात् उसने उनमें से हर एकका एक-एक जूता लेकर उसके अतिशय सूक्ष्म भाग किये और उनको भोजनमें मिलाकर उन सभीको खिला दिया । भोजन करके जब वे वापिस जाने लगे तब उन्हें अपना एक-एक जूता नहीं दिखा। इसके लिए उन्होंने चेलिनीसे पूछा । उत्तरमें चेलिनीने कहा कि ज्ञानसे जानकर उन्हें खोज लीजिए । इसपर उन लोगोंने कहा कि हमको वैसा ज्ञान नहीं है। वह सुनकर चेलिनी बोली कि तो फिर दिगम्बर साधुओंकी परलोकवार्ता कैसे जानते हो ? इसके उत्तरमें साधुओंने कहा कि हम नहीं जानते हैं, हमारे जूतोंको दिलवा दो । तब चेलिनीने कहा उनको तो आप लोगोंने ही खा लिया है, मैं उन्हें कहाँसे दिला सकती हूँ ? इसपर उनमेंसे एक साधुने वमन कर दिया। उसमें सचमुचमें चमड़ेके टुकड़ोंको देखकर लज्जित होते हुए वे अपने स्थानपर चले गये । दूसरे दिन किसी समय राजाने चेलिनीसे कहा कि हे देवी! जब मेरे गुरु ध्यानका आश्रय लेते हैं तब वे अपनेको विष्णुभवनमें ले जाकर वहाँ सुखपूर्वक रहते हैं। यह सुनकर चेलिनीने कहा कि तो फिर आप नगरके बाहिर मण्डपमें मुझे उनका ध्यान दिखलाइए। इससे मैं आपके धर्मको स्वीकार कर लूंगी। तत्पश्चात् वे सब गुरु उस मण्डपके भीतर वायुका निरोध करके बैठ गये । श्रेणिकने यह सब चेलिनीको दिखला दिया। तब चेलिनीने उन्हें देखकर सखीके द्वारा मण्डपमें आग लगवा दी। अग्निके प्रदीप्त होनेपर वे सब वहाँ से भाग गये। इससे क्रोधित होकर राजाने उससे कहा कि यदि तुम्हारी उनमें भक्ति नहीं थी तो क्या उनके मारनेका प्रयत्न करना तुम्हें योग्य था। उत्तरमें चेलिनीने श्रेणिकसे कहा कि हे देव ! एक कथानकको सुनिए-वत्स देशके भीतर कौशाम्बी नगरीमें वसुपाल नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम यशस्विनी था । इसी नगरीमें एक सागरदत्त नामका सेठ रहता था, इसकी पत्नीका नाम वसुमती था। वहींपर दूसरा एक समुद्रदत्त नामका भी सेठ था उसकी पत्नीका नाम सागर १. प राजा राज्ञो अभाणीत् फ राजा अभणोत् श राजा राज्ञो अभणीत् । २. ब अग्निमदोदयत् श अग्निमदापयन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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