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________________ ४० पुण्यात्रवकथाकोशम् [१-८ सन्नुभावप्यवरकान्तः प्रवेश्य द्वारं दत्त्वा उक्तवान्-यः कुञ्चिकाविवरेण निःसरति स गृहस्वामो भवतीति । ततो निर्गतो ब्रह्मराक्षसः । इतरो न शक्नोति । ततस्तस्य समर्पिता इति प्रसिद्धिं गतोऽभयकुमारः। ____ अत्रान्या कथा । अयोध्यायां भरतनामा चित्रकः पद्मावतीमाराधयन् यद्रपं' मनसि विचिन्त्य लेखनी पटे ध्रियते तद्रूपं स्वयमेव भवत्विति वरो याचितवांश्च । लब्ध्वानेकदेशेषु स्वविद्यां प्रकाशयन् सिन्धुदेशे वैशालीपुरं गतः। तत्र राजा चेटको देवी सुभद्रा पुत्र्यः सप्तप्रियकारिणी मृगावती जयावती सुप्रभा ज्येष्ठा चेलिनी चन्दना । तत्र लेखिनोमवलम्बितवान् । राज्ञोऽग्रे सर्वे चित्रकारा जिताः। ततो राशा तस्मै वृत्तिर्दत्ता । कन्यानां रूपाणि विलेख्य द्वारेऽविलम्ब्य धृतानि विलोक्य जनेन नमस्कृत्य स्वयं विलेख्य स्वस्वद्वारेऽवलम्बितानि । ताः सप्तमातृकाः जाताः । तासु चतसणां विवाहो जातः। तिस्र कन्याः माटे स्थिताः । तत्र चेलिन्या निर्ग्रन्थरूपं मनसि धृत्वा पटे लेखिनी धृता तेन । तदनु यथावपं बभूवाङ्गे विद्यमानस्तिलोऽपि तत्रासीत् । तं दृष्टानेन कन्याशीलं विनाशितमिति रुष्टो राजा । केनचिद्भरताय निवेदितं तव राजा कुपित इति । मध्यमें आये। वह भी दृष्टि, स्वर और गतिके भेदसे उनमें भेद नहीं कर सका। तब उसने उन दोनोंको. ही घरके भीतर करके द्वार बन्द कर दिया और कहा कि जो कुञ्चिका ( चाबी ) के छेदसे बाहिर निकलता है वह घरका स्वामी समझा जावेगा । तब ब्रह्मराक्षस उस कुञ्चिकाके छेदसे बाहिर निकल आया । परन्तु दुसरा ( बलभद्र ) नहीं निकल सका । इसलिए अभयकुमारने भद्राको उसके लिए ( बलभद्रके लिए ) समर्पित कर दिया। इस प्रकारसे अभयकुमार प्रसिद्ध हो गया । यहाँ दूसरी एक कथा है- अयोध्यापुरीमें एक भरत नामका चित्रकार था । उसने पद्मावतीकी उपासना करते हुए उससे ऐसे वरकी याचना की कि मैं जिस रूपका विचार कर लेखनीको पटके ऊपर धरूँ वह रूप स्वयं हो जावे । इस वरको पाकर वह अनेक देशोंमें अपनी विद्याको प्रकाशित करता हुआ सिन्धुदेशस्थ वैशाली नगरमें पहुँचा। वहाँका राजा चेटक था। उसकी पत्नीका नाम सुभद्रा था । इनके ये सात पुत्रियाँ थीं---प्रियकारिणी, मृगावती, जयावती, सुप्रभा, ज्येष्ठा, चेलिनी और चन्दना । भरत चित्रकारने वहाँ लेखनीका अवलम्बन लेकर इस विद्यामें राजाके समक्ष सब चित्रकारोंको जीत लिया। तब राजाने उसे वृत्ति (आजीविका ) दी। उसने उससे कन्याओंके रूपोंको लिखाकर उन्हें द्वारके ऊपर लटकवा दिया। उनको देखकर प्रजाजनने नमस्कारपूर्वक उन्हें स्वयं लिखाकर अपने-अपने द्वारके ऊपर टँगवा दिया। इस प्रकार वे सात मातृका प्रसिद्ध हो गई थीं। उनमें चार कन्याओंका विवाह हो चुका था। शेष तीन कन्याएँ माट (घर ) में स्थित थीं-कुंवारी थीं। वहाँ उक्त चित्रकारने मनमें चेलिनीके निर्वस्त्र ( नग्न ) रूपका विचारकर पटपर अपनी लेखनीको रक्खा। तब तदनुसार जैसा उसका रूप था पटपर अंकित हो गया । यहाँ तक कि उसके गुप्त अंगपर जो तिल था वह भी चित्रपटमें अंकित हो गया था। उसे देखकर राजाको यह विचार हुआ कि इसने कन्याके शीलको नष्ट किया है। अतएव उसको चित्रकारके ऊपर अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ। किसीने जाकर भरत चित्रकारसे यह कह दिया कि तुम्हारे ऊपर राजा रुष्ट हो गया है। इससे वह वहाँ से भाग गया। १. फ ब माराधयद्रूपं शमाराधयत् यद्रूपं । २. फ लेखनीपटे तद्रूपं । ३. राज्ञाग्रे सर्वे चित्रकारान् । ४. फ तस्यै वृत्ति दत्ता ब तस्यैव वृत्ति ईत्ता। ५ फ ब विलिख्य । ६. फ पट । ७. श लेखिनी ता। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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