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________________ : १-८ ] १. पूजाफलम् ८ ३६ कर्तव्यमिति । ततः पितापुत्रयोः संयोग इति तेन तद्ग्रामस्याभयदानं दापितम् । ततो राज्ञा नन्दश्रियो महादेवपट्टो बद्धो । अभयकुमारस्य च युवराजपट्टः । जठराग्निं राजगुरुं कृत्वा वैष्णवं धर्म प्रकाशयन् सुखेन स्थितः । अत्र कथान्तरम् । तथाहि - अत्रैक इभ्यः समुद्रदत्तस्तस्य द्वे भायें, वसुदत्ता वसुमित्रा च । कनिष्ठायाः पुत्रोऽस्ति । उभे अपि तं क्रीडयतः स्तनं च पाययतः । मृते श्रेष्ठिनि तयोविवादोऽजनि मम पुत्र इति । राजापि तं निवर्तयितुं न शक्नोति । अभयकुमारोऽपि बहुप्रकारैस्तद्भेदयन्नपि यदा न जानाति तदा वालं भूमौ निक्षिप्य छुरिकामाकृष्य तस्योपरि व्यवस्थाप्योभाभ्यामर्धमर्ध पुत्रस्य ग्राह्यमित्युक्ते मात्रोदितमस्यै समर्पय देवाहमवलोक्य तिष्ठामोति । ततस्तन्मातरं परिज्ञाय तस्यै समर्पितः । अन्यदायोध्यानगरे कश्चित्कुटुम्बी बलभद्रः, तद्वनितां रूपवर्ती भद्रसंज्ञां विलोक्य ब्रह्मराक्षसस्तत्कुटुम्बी वेषेण गृहं प्रविष्टस्तया गतिभङ्गेन ज्ञात्वा द्वारं दत्तमपवरकस्य । इतरो प्यागतः । तदा गोत्रस्य विस्मयोऽभूत् । संकेतादिकमुभावपि कथयतः । कोऽपि भेदयितुं न शक्नोति । तदा अभयकुमारान्तिकमागतौ सभामध्ये । दृष्टि- स्वर - गतिभङ्गेन भेदयितुमशक्त: ७ तत्पश्चात् पिता और पुत्रका मिलाप हो जानेसे अभयकुमार के द्वारा उस नन्दिग्रामको अभयदान दिलाया गया । पश्चात् राजाने नन्दश्री को महादेवीका और अभयकुमारको युवराजका पट्ट बाँधा । वह जठराग्निको राजगुरु बनाकर वैष्णव धर्मका प्रचार करता हुआ सुखपूर्वक राज्य करने लगा | । यहाँ दूसरा एक कथानक है जो इस प्रकार है- यहाँ एक समुद्रदत्त नामका एक धनी था । उसके दो स्त्रियाँ थीं- वसुदत्ता और वसुमित्रा । छोटी पत्नीके एक पुत्र था । उसको वे दोनों ही खिलातीं और स्तनपान कराती थीं सेठके मर जानेपर उन दोनोंमें पुत्रविषयक विवाद उत्पन्न हुआ – वसुदत्ता कहती कि पुत्र मेरा है और वसुमित्रा कहती कि नहीं, वह पुत्र मेरा है। राजा' भी इस विवादको नष्ट नहीं कर सका । अभयकुमारने भी अनेक प्रकारसे इस रहस्यको जानने का प्रयत्न किया, किन्तु जब वह भी यथार्थ बातको नहीं जान सका तब उसने बालकको पृथिवीपर रखकर एक छुरी उठायी और उसे उस बालकके ऊपर रखकर उन दोनोंसे कहा कि मैं इस बालकके बराबर-बराबर दो टुकड़े कर देता हूँ । उनमेंसे तुम दोनों एक-एक टुकड़ा ले लेना । इसपर बालककी जननीने कहा कि हे देव ! ऐसा न करके बालकको इसे ही दे दें । मैं उसको देखकर ही सुखी रहूँगी । इससे अभयकुमारने बालककी यथाथ माताको जानकर पुत्रको उसके लिए दे दिया । किसी समय अयोध्या नगरमें एक बलभद्र नामका किसान रहता था। एक समय उसकी भद्रा नामकी सुन्दर स्त्रीको देखकर बलभद्रके वेषमें उसके घर के भीतर ब्रह्मराक्षस प्रविष्ट हुआ । तब भद्राने गतिभंगसे जानकर घरका ( या शयनागारका ) द्वार बम्द कर लिया । इतनेमें दूसरा ( बलभद्र ) भी आ गया । तच कुटुम्बीजनको आश्चर्य हुआ, क्योंकि संकेत आदिको वे दोनों ही बतलाते थे । इस रहस्यको कोई भी नहीं जान पा रहा था। तब वे दोस्रो अभयकुमार के पास सभाके १. प श जठराग्निराज । २. फ अत्रैकेभ्यः । ३. पजदा न यानाति, फ यदा न यावति, ब मदा न यानाति । ४. श विवस्थाप्य । ५. फ मात्रोदितास्यै श मानोदितामस्य । ६ प ब परिज्ञाय तस्यैव श परिज्ञाया स्यैव । ७. श सद्वनितां । ८. फ रुद्रा संज्ञां । ९. फ. संकेतादपिक- । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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