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________________ :१-८] १. पूजाफलम् ८ तद्ग्रहिलत्वमिति पृष्टे' सर्व तद् वृत्तान्तं निरूपितं तेन । श्रुत्वा तयोक्तम्--स पहिलो न भवति । कथमिति चेत् शृणु। यदकस्मान्मामेत्युक्तवान्, भागिनेयो मान्यो भवतीत्यभिप्रायेणोक्तवान् । जिह्वारथः कथाविनोदः । जले कण्टकादिकं न दृश्यते इत्युपानहौं परिदधाति । काकादिविष्ठाभयेन वृक्षतले छत्रं धारयते । तद्ग्रामे युवां भुक्तवन्तौ नो वा। यदि भुक्तवन्तौ तदा भृतोऽन्यथोद्वंस इति । नारी यदा संगृहीता तदा मुक्तां ताडयति, परिणीतां चं बद्धामिति । यो मृतः स गुणवान् चेदिदानी मृतोऽन्यथा पूर्वमेव । शालिक्षेत्रं यदि ऋणं गृहीत्वा कृतं तदा तत्फलं भुक्तम् । नो चेत् भोक्ष्यते । हलस्य द्वे डाले । बदर्या द्वौ कण्टकाविति । नन्दश्रिया तदभिप्रायं व्याख्याय स व तिष्ठतीति पृष्टे तडागतटे तिष्ठतीत्युक्ते सा स्वसखीं दीर्घनखीं निपुणमतीसंज्ञां नखेन तैलं गृहीत्वा तदन्तिकं प्रेषितवती। तया गत्वा स पृष्टः- इन्द्रदत्तश्रेष्ठिना सह त्वमागतोऽसि । तेन ओमित्युक्त तर्हि तत्सुता नन्दश्री कन्या, तयेदं तैलं प्रेषितमिदमभ्यज्य स्नात्वा गहमागच्छेत्युक्ते तैलं वीक्ष्य पादेन गर्ने विधाय जलेन फिर पूछा कि उसका पागलपन कैसा है तब उसने मार्गकी उपर्युक्त सब घटनाओंको कह सुनाया। उनको सुनकर नन्दश्रीने कहा कि वह पागल नहीं है। वह पागल कैसे नहीं है, इसे सुनियेउसने अकस्मात् जो आपको मामा कहकर सम्बोधित किया है उससे उसका यह अभिप्राय था कि भानजा आदरके योग्य होता है। जिह्वारथपर चढ़कर चलनेसे उसका अभिप्राय यह था कि हम परस्पर कुछ कथावार्ता करते हुए चलें, जिससे कि मार्गमें थकावटका अनुभव न हो । जलके भीतर चूंकि काँटे आदिको नहीं देखा जा सकता है अतएव वह जलमेंसे जाते हुए जूतोंको पहिन लेता है। कौवा आदिका विष्ठा ऊपर न गिरे, इस विचारसे वह वृक्ष के नीचे जाकर छत्ता लगा लेता है। उस गाँवमें तुम दोनोंने भोजन किया अथवा नहीं किया ? यदि भोजन कर लिया है तो वह गाँव परिपूर्ण है, अन्यथा वह ऊजड़ ही है। जिस स्त्रीको वह मार रहा था वह यदि उसकी रखेली थी तब तो वह मुक्त स्त्रीको मार रहा था, और यदि वह उसकी विवाहिता थी तो वह बद्ध स्त्रीको मार रहा था । जो मनुष्य मर गया था वह यदि गुणवान् था तब तो समझना चाहिए कि वह अभी मरा है, परन्तु यदि वह गुणहीन था तो उसे पूर्व में भी मरा हुआ ही समझना चाहिये । धानके खेतको यदि किसानने कर्ज लेकर किया था तब तो उसका फल खाया जा चुका समझना चाहिये; और यदि उसे कर्ज लेकर नहीं किया गया है तो उसका फल भविष्यमें खाया जावेगा, यह समझना चाहिए । हलके दो डाल होते हैं। बेरीके दो-दो मिले हुए काँटे होते हैं । इस प्रकार नन्दश्रीने श्रेणिकके अभिप्रायकी व्याख्या करके पितासे पूछा कि वह कहाँ है। उत्तरमें इन्द्रदत्तने कहा कि वह तालाबके किनारे बैठा है। यह सुनकर उसने अपनी निपुणमती नामकी दीर्घ नखवाली दासीको नखमें तेल लेकर उसके पास भेजा। दासीने जाकर उससे पूछा कि इन्द्रदत्त सेठके साथ तुम आये हो क्या । उत्तरमें जब उसने कहा कि 'हाँ' तब निपुणमतीने उससे कहा कि इन्द्रदत्तके एक नन्दश्री नामकी कन्या है, उसने यह तेल भेजकर कहलाया है कि इस तेलको लगाकर और स्नान करके मेरे घरपर आवो । यह सुनकर श्रेणिकने तेलकी ओर देखा। फिर पाँवसे एक गड्ढा करके और उसे पानीसे भरकर उससे कहा कि तेलको यहाँ रख दो। तदनुसार १. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श तद्ग्रथिलत्वं पृष्टे । २. फ सर्वं तद्वृत्तं निवेदितवान् तेन । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । प श मान्यो भवतीत्युक्तवान् अभि० फ मान्यो भविष्यतीत्यभि०। ४. ब इति पानहो । ५. पश वष्टयाभयेन । ६. फ छत्रं धूत इति ब छत्रं धरते । ७. ब भती नान्यथो०। ८. फ 'च' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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