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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [१-८: पूरित्वात्र तैलं निक्षिपेत्युक्ते सा तत्र निक्षिप्य गच्छन्ती पृष्टा तद्गुहं केति । सा को प्रदर्श्य गता । स स्नात्वा तदभ्यज्य केशादिकं स्निग्धं कृत्वा नगरं प्रविष्टस्तालगुमालंकृतं गृहं गतः। तावत् सा द्वारे पकं कारयामास । तस्योपरि लघुपाषाणान् धरते स्म । स तान् वीक्ष्य तत्र प्रविश्य बहुकर्दमपादः प्राङ्गणे उपविष्टः । तयातिस्तोकं जलं प्रस्थापितम् । पादौ प्रक्षाल्यान्तः प्रविशेति । स जलदर्शनाद्विस्मितो वेणुचीरणं गृहीत्वा पङ्कमपसार्य जलेन पादौ साद्रौं कृत्वा स्तोकं जलं पुनः समर्पितवान् । ततोऽत्यासक्तया तयान्तः प्रवेशितो भणितश्चास्माकं प्राघूर्णको भव । स बभाणाद्य परान्नं न भुञ्जाम । मद्धस्ते द्वे षोडषिके तण्डुलास्तिष्ठन्ति, तैर्यद्यष्टादशभक्ष्यादियुक्तभोजनं कोऽपि ददाति तदा भुज्यते, नान्यथा । ततः सा तान् जग्राह, तत्पिप्टेनापूपाश्च कारिता [:]| निपुणमती व्यक्रोणीत । विटजनस्तस्यै अपूपग्रहणव्याजेन बहु द्रव्यं दत्तवान् । तेन द्रव्येण सा तथा तस्य भोजनमदात् । ततः सकषायपूगीफलभागान स्वल्पपर्णबहुचूर्णोपेतान् ताम्बूलानदात् । स तान् चर्वन् कषायं परित्यजन् चूर्णेन विचित्रं चित्रमलिखत् । पत्रयोग्यपूगीफलं सावशेष पत्रं चखाद। तदनु सातिहृष्टानेकप्रदेशवकं सछिद्रं प्रवालं तदने धृतं दवरकश्च । दवरकाग्रे गुडं विलिप्य यावत्तत् प्रविशति तावत्तच्छिद्रे प्रवेश्य वह तेलको रखकर जब वापिस जाने लगी तब श्रेणिकने उससे पूछा कि नन्दश्रीका घर कहाँपर है। उत्तरमें वह कानोंको दिखलाकर वापिस चली गई। तब श्रेणिकने स्नान किया और फिर उस तेलको लगाते हुए बालों आदिको स्निग्ध करके वह नगरमें जा पहुँचा । वहाँ वह तालवृक्षसे सुशोभित घरको देखकर उसके भीतर चला गया। इस बीचमें नन्दश्रीने वहाँ कीचड़ कराकर उसके ऊपर छोटे पत्थरोंको डलवा दिया था। वह उनको देखकर कीचड़के भीतर प्रविष्ट हुआ। इससे उसके पाँवोंमें बहुत-सा कीचड़ लग गया था । वह उसी अवस्थामें आंगनमें जाकर बैठ गया। नन्दश्रीने पाँव धोनेके लिए बहुत ही थोड़ा जल रखकर उससे कहा कि पाँवोंको धोकर भीतर आओ। उस जलको देखकर श्रेणिकको बहुत आश्चर्य हुआ। उसने बांसके चीरनको लेकर पहिले उससे कीचड़को दूर किया, फिर जलसे पाँवोंको गीला करके बचे हुए थोड़े-से जलको वापिस दे दिया। तत्पश्चात् नन्दश्री अतिशय अनुरक्त होकर उसे भीतर ले गई और उससे अपने अभ्यागत होनेको कहा । उत्तरमें उसने कहा कि मैं आज दूसरेके अन्नको न खाऊँगा। मेरे हाथमें बत्तीस चावल स्थित हैं। उनसे यदि कोई अठारह भोज्य आदि पदार्थोंसे संयुक्त भोजन देता है तो मैं उसे खाऊँगा, अन्यथो नहीं । इसपर नन्दश्रीने उन चावलोंको ले लिया और उनके आटेसे पुए बनाये । उनको निपुणमतीने ले जाकर बेच दिया । जार पुरुषोंने पुओंके बहानेसे उसे बहुत-सा धन दिया। इस धनसे नन्दश्रीने श्रेणिकको उसके कहे अनुसार अठारह भोज्य पदार्थोंसे संयुक्त भोजन करा दिया। तत्पश्चात् उसने उसे पान खानेके लिए छोटा पान और बहुत चूना तथा कत्थाके साथ सुपाड़ीके टुकड़ोंको दिया। तब वह कषायरसको थूकते हुए उन्हें चबाने लगा । साथ ही उसने चूनाके चूर्णसे अनुपम चित्र बनाया। जब पानके योग्य सुपाड़ी शेष रही तब उसने ताम्बूलपत्रको खाया। पश्चात् नन्दश्रीने अतिशय हर्षित होकर अनेक स्थानमें कुटिल छेदयुक्त प्रवाल (मुंगा) और धागेको उसके सामने रक्खा। तब श्रेणिकने धागेके अग्रभागमें गुड़को लपेटकर जितना जा सका उतना उसे प्रवालके छेदमें डाल दिया। पश्चात् उसे चीटियोंके स्थानमें रख दिया । वहाँ १. पश तदभ्यक्तके व तदा भ्युज्य । २. फ श धारते। ३. बे प्रद्याखणे । ४. ब प्रविश्योति । ५. फ ब चीवरं । ६. फ ब श भुंजीय । ७. ब मद्वस्वे [स्त्र] । ८. फ ब भक्षादि । ९. ब मलखीत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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