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________________ ३३४ पुण्यात्रवकथाकोशम् [६-१६, ५७: जलं पायितौ। ततः कियद्वेलायामम्ब, बुभुक्षितावित्युक्तवन्तौ। तदा स एव वृक्षः कल्पवृक्षोऽभूत् । ततो यथेष्टं वस्तु भुक्तवन्तौ पुत्रौ। सा तत् कौतुकं वीक्ष्य धर्मफलेऽतिहृष्टा जझे, सुखेन स्थिता तत्र । ___ इतो गिरिनगरं तदिन एव राजभवनमन्तःपुरगृहाणि सोमशर्मगृहं विहायान्यत्सर्व भस्मीबभूव । सर्वेऽपि जनाः पलाय्य पुराद् वहिस्तस्थुः ऊचुश्चाग्निज्वालामध्यस्थमपि सोमशर्मणो गृहमुद्धृतमहो । तत्र योऽभुक्त' स क्षपणको न भवति । किं तर्हि । कोऽपि देवताविशेषोऽन्यथा किं तद्गृहमुद्वियते । ततस्तद्भुक्तशेषा रसवती पयित्रेति पूर्व ये आमन्त्रिता अन्ये च विप्राः सोमशान्तिकमागत्योचुः- त्वं पुण्यवान् , क्षपणकवेषेण कश्चिद्देवता भुक्तवानित्यतस्त्वद्गृहरसवती पवित्रास्मभ्यं भोक्त प्रयच्छ। ततस्तेन ते विप्रा अन्येऽपि स्वगृहं नीता यथे; भोजिताः। स मनिः परमेश्वरोऽतीणमहानसर्दिप्राप्त इति तस्य क्षीररसदधिनी विहायान्या सर्वापि रसवती परिविष्टेति तद्दिनेऽक्षया बभूव। सर्वेऽपि पौरजनास्तेन भोजिताः। सर्वजनकौतुकमासीत् । सर्वेऽपि मुनिदानरता जज्ञिरे। निर्मल जलसे परिपूर्ण हो गया । तब उसने उस तालाबसे दोनों बालकोंको जल पिलाया । तत्पश्चात् कुछ समयके बीतनेपर दोनों बालक बोले कि माँ ! हम दोनों भूखे हैं। उस समय वही वृक्ष उनके लिए कल्पवृक्ष बन गया। तब दोनों बालकोंने इच्छानुसार भोज्य वस्तुओंका उपभोग किया । इस आश्चर्यको देखकर अग्निला धर्मके फलके विषयमें अतिशय हर्षको प्राप्त हुई। इस प्रकारसे वह वहाँ सुखसे स्थित थी। इधर उसी दिन राजभवन, अन्तःपुरगृह ( स्त्रियोंके रहनेके घर ) और सोमशर्माके घरको छोड़कर शेष सारा गिरिनगर अग्निमें जलकर भस्म हो गया। उस समय सब ही जन भागकर नगरके बाहर स्थित होते हुए बोले कि आश्चर्यकी बात है कि अग्निकी ज्वालके बीचमें पड़ करके भी सोमशर्माका घर बच गया है- वह नहीं जला है। उसके घरपर जिसने भोजन किया था वह नग्न साधु नहीं, किन्तु कोई विशिष्ट देव था। यदि ऐसा न होता तो वह सोमशर्माका घर भस्म होनेसे क्यों बचा रहता ? इसलिये उसके भोजन कर लेनेपर शेष रही रसोई पवित्र है । ऐसा विचार करते हुए उनमें-से जिन ब्राह्मणोंको पहले निमन्त्रित किया गया था वे तथा दूसरे भी ब्राह्मण सोमशर्माके घर आकर बोले कि हे सोमशर्मा ! तुम पुण्यशाली पुरुष हो, तुम्हारे यहाँ नग्न साधुके वेषमें किसी देवताने भोजन किया है। इसलिए तुम्हारे घरकी रसोई पवित्र है । तुम उसे हमें खानेके लिए दो। तब सोमशर्माने उन सबको तथा और दूसरे ब्राह्मणोंको भी अपने घर ले जाकर उन्हें इच्छानुसार भोजन कराया। वे मुनि परमेश्वर अक्षीणमहानस ऋद्धि के धारक थे, इसीलिए उस दिन उनके लिए दूध और दहीको छोड़कर शेष जो सब रसोई परोसी गई थी वह सब अक्षय हो गयी थी- चक्रवर्तीके विशाल कटकके द्वारा भी भोजन कर लेनेपर वह नष्ट नहीं हो सकती थी। उस दिन सोमशर्माने सब ही नगरनिवासियों को भोजन कराया। इस घटनासे उस समय सब ही जनोंको आश्चर्य हुआ । इससे सब ही जन मुनिदानमें अनुराग करने लगे। १. ज यो भुक्त ब भुक्तः। २. फ मुद्धियते व मुद्द्यते । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । ज क्षीररसदधिना पफ श क्षीररसदधिनी । ४. श विहायात्पा सर्वीपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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