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________________ ६-१६, ५७ ] ६. दानफलम् १६ द्वितीयदिने सोमशर्मा' हा, मया पापकर्मणा महासती पुण्यमूर्तिनिरपराधा संताडिता क्व गतेति गवेषयांचक्रे, अपश्यन् महाविप्रलापं कृतवान् । तदा केनापि कथितम् 'ते वनिता ऊर्जयन्तं गता' इति । तदनु कतिपयजनैरूजयन्तमांगतस्तदागमनं विलोक्याग्निला पुनरयं मे किंचिद्दःखं दास्यतीति मत्वा पुत्रौ तत्रैव निधाय स्वयं तदर्या पपात । यावत्स तत्र न प्राप्नोति तावत्सा मृत्वा व्यन्तरलोके दिव्यप्रप्रिा]सादोपपादभवन स्थपल्यङ्कस्योपरि स्थितहंसतूलिकयोर्मध्ये ऽन्तमुहर्ते नवयौवनसंपन्ना धातुरहितसुगन्धामलदेहा सहजवस्त्रालङ्कारमाल्यविभूषिताणिमाद्यष्टगुणपुष्टा जैनजनवात्सल्यपरा' सकलद्वोपस्थात्यन्तरम्यनद्यद्रितरुप्रदेशादिषु क्रीडनशीलानेकपरिवारदेवीयुता श्रीमन्नेमिजिनशासनरक्षकाम्बिकाभिधा' यक्षी भूत्वा भवप्रत्ययावधियोधेन देवगत्युत्पत्तिकारणं विबुध्य धर्मानन्दमूर्तिर्जनमनोहररूपाग्निलारूपेण तत्तनयान्तिके तस्थौ । तदा स आगत्य निजवनितां मत्वोक्तवान् - प्रिये,यन्मया पापिष्ठेनापरीक्ष्य कृतं तत्सर्व क्षमस्वागच्छ गृहम् । सा बभाण- तव वनिताहं न भवामि, सा तत्र तिष्ठतीति तत्कलेवरं दर्शयति स्म, स तद् दृष्ट्वाश्रद्दधस्त्वमेव मे वनितेति तद्वस्त्रं दधानमना यावदति दूसरे दिन सोमशर्माको अपने उस दुष्कृत्यके ऊपर बहुत पश्चात्ताप हुआ। वह विचार करने लगा कि हाय ! मुझ पापीने उस पवित्रमूर्ति महासतीको बिना किसी प्रकारके अपराधके ही मारा है, न जाने वह अब कहाँ चली गई है। इस प्रकारसे पश्चाताप करता हुआ वह उसे खोजने लगा लगा। किन्तु जब वह उसे कहीं नहीं दिखी तब वह अतिशय करुणापूर्ण आक्रन्दन करने लगा। उस समय किसीने उससे कहा कि तुम्हारी स्त्री ऊर्जयन्त पर्वतपर गई है। तब वह कुछ जनोंके साथ ऊर्जयन्त पर्वतपर आया। उसे आता हुआ देखकर अग्निलाने सोचा कि अब यह मुझे फिरसे भी कुछ दुःख देगा । बस, यही सोचकर उसने उन दोनों पुत्रोंको तो वहीं छोड़ा और आप स्वयं उस पर्वतकी दरी ( ? ) में जा गिरी। सोमशर्मा उसके पास पहुँच भी नहीं पाया था कि इस बीचमें वह मर गई और व्यन्तर लोकमें दिव्य प्रासादके भीतर उपपाद-भवन में स्थित शय्याके ऊपर यक्षी उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही नवीन यौवनसे सम्पन्न हो गई । सात धातुओंसे रहित होकर सुगन्धित व निर्मल शरीरको धारण करनेवाली वह यक्षी स्वाभाविक वस्त्राभरणोंके साथ मालासे विभूषित, अणिमा-महिमादि आठ गुणों ( ऋद्धियों ) से परिपूर्ण, जैन जनोंसे अनुराग करनेवाली; समस्त द्वीपोंमें स्थित अतिशय रमणीय नदी, पर्वत एवं वृक्ष आदि प्रदेशोंमें स्वभावतः क्रीड़ा करने में तत्पर;तथा अनेक परिवार देवियोंसे सहित होकर श्री नेमि जिनेन्द्रकी शासनरक्षक देवी हुई । नाम उसका अम्बिका था। उसने वहाँ जैसे ही भवप्रत्यय अवधिज्ञानसे अपने देवगतिमें उत्पन्न होनेके कारणको ज्ञात किया वैसे ही वह धर्मके विषयमें अतिशय आनन्दित होती हई जनके मनको आकर्षित करनेवाले वेषको धारण करके अग्निलाके रूपमें आयी और अपने दोनों बच्चोंके पासमें स्थित हो गई । उस समय सोमशर्मा वहाँ आया और अपनी स्त्री समझकर उससे बोला कि हे प्रिये ! मुझ पापीने जो बिना बिचारे तुझे कष्ट पहुँचाया है उसके लिए तू क्षमा कर और अब अपने घरपर चल । इसपर वह बोली कि मैं तुम्हारी स्त्री नहीं हूँ, वह तो वहाँपर स्थित है। यह कहते हुए उसने उसके निर्जीव शरीरको उसे दिखला दिया। परन्तु उसने उसे देखकर भी विश्वास नहीं १. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सोमशर्मणा । २. ज महा । ३. प श गते गवे । ४. ज निधायेयं स्वयं । ५. ज प ब प्रसादो पपातभवन । ६ श हंसभूलकयोर्मध्ये । ७. ज जैनवात्सल्यपरा श जैनवाच्छलपरा । ८. श प्रवेशादिषु । ९ ज श रक्षकांवायिका प रक्षकांवीप का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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