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________________ ६-१६, ५७ ] ६. दानफलम् १६ परिक्षाय तं गिरिं गच्छन्ती मार्गे भिल्ली विलोक्याग्निला 'हेऽम्ब ऊर्जयन्तगिरेर्मार्गः कः' इति पप्रच्छ । भिल्ली बभाण-मातस्तत्र ते किं प्रयोजनम् । तयोक्तम्-किमनेन विचारणेन, तन्मार्ग कथय । पुलिन्दी बभाण-त्वमेकाकिनी बालाभ्यामनेकव्याघ्रादिप्रचरितं गिरिं कथं प्रवेक्ष्यसि। सा बभाण-मदीयो गुरुस्तत्र तिष्ठति, तत्प्रभावेन सर्वे मे सुस्थम्, तन्मार्ग कथय । तया तन्मार्गः कथितः । तेन गत्वा तं गिरिमवाप। तत्र कमपि पुलिन्दं मुनिस्थितस्थान पप्रच्छ । स सबालां तां विलोक्य कपावशेन तँगिरिकटिस्थगुहास्थं तं मुनि दर्शयति स्म । सा तं नत्वा समीपे उपविश्योवाच- स्वामिन् , स्त्रीजन्मातिकष्टमतोऽस्य विनाशकं मे तपो देहि । मुनिर्बभाण-मातस्त्वं रोषेणागतासीत्यव्यक्तापत्यमातेति तपो न प्रकल्पते', अत्र स्थातुमपि लोकापवादभयादतो गत्वा एकस्मिन् तरुतले यावद्भवदीयः कोऽपि समागच्छति तावत्तिष्ठ । सा 'प्रसादः' इति भणित्वा तस्मान्निर्गत्योच्चैःप्रदेशस्थतरुतले उपविष्टा । तत्र पुत्रौ जलं ययाचते । तदा शुरुको तटाको ऽग्निलापुण्यप्रभावेनात्यन्तमृप्रनिर्मलोदकपूर्णो बभूव । ततो" वे मुनि ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर विराजमान हैं तब वह छोटे लड़केका हाथ पकड़ करके और बड़े लड़केको पीछे करके उस ऊर्जयन्त पर्वतकी ओर चल पड़ी। मार्गमें जाते हुए उसे एक भील स्त्री दिखी । उससे उसने पूछा कि हे माता ! ऊर्जयन्त पर्वतका रास्ता कौन-सा है ? इसपर उस भील स्त्रीने अग्मिलासे पूछा कि हे माता ! तुम्हें उस पर्वतसे क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तरमें अग्निलाने कहा कि इस सबका विचार करनेसे तुम्हें क्या लाभ है, तुम तो केवल मुझे उस पर्वतका मार्ग बतला दो । इसपर उस भील स्त्रीने कहा कि तुम अकेली हो और तुम्हारे साथ ये दो बालक हैं, उधर वह पर्वत व्याघ्रादि हिंसक जीवोंसे परिपूर्ण है। उसके भीतर तुम कैसे प्रवेश कर सकोगी ? यह सुनकर अग्निला बोली कि मेरे गुरुदेव वहाँपर विराजमान हैं, उनके प्रभावसे मेरे लिए सब कुछ भला होगा । तुम मुझे वहाँका मार्ग बतला दो । इसपर उसने अग्निलाको वहाँका मार्ग बतला दिया । तब वह उस मार्गसे जाकर ऊर्जयन्त पर्वतपर पहुँच गई । वहाँ जाकर उसने किसी भीलसे उन मुनिके रहनेका स्थान पूछा । भीलने उसके साथ बच्चोंको देखकर दयालुतावश उसे उस पर्वत. के कटिभागमें स्थित एक गुफाके भीतर विराजमान उन मुनिको दिखला दिया । तब वह उनको नमस्कार करके पासमें बैठ गई और बोली कि हे स्वामिन् ! यह स्त्रीकी पर्याय बहुत कष्टमय है, इसलिये मुझे इस पर्यायसे छुटकारा दिला देनेवाले तपको दीजिये। यह सुनकर मुनि बोले कि हे माता ! तुम क्रोधके वश होकर आयी हो व इन अल्पवयस्क अबोध बालकोंकी माता हो, इसलिए तुम्हें दीक्षा देना योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त लोकनिन्दाके भयसे तुम्हारा यहाँ स्थित रहना भी योग्य नहीं है । इसलिए जब तक तुम्हारा कोई सम्बन्धी नहीं आता है तब तकके लिये यहाँसे जाकर किसी एक वृक्षके नीचे ठहर जाओ। इसपर वह उन मुनिका आभार मानती हुई वहाँसे निकलकर किसी ऊँचे प्रदेशमें स्थित एक वृक्ष के नीचे बैठ गई। वहाँपर दोनों पुत्रोंने उससे जल माँगा। उस समय जो तालाब सूखा पड़ा था वह अग्निलाके पुण्यके प्रभावसे अतिशय पवित्र १. श प्रयोजनं तयोजनं तयोक्तं। २. ब तन्मार्ग। ३. श स्थिति स्थानं। ४. शतगिरिनिकटिनोस्थं । ५. ब सीत्यव्यक्तपतत्यमातेति । ६. ब प्रकल्प्यते । ७. पच्चैप्रदेशस्थाम्रातरु फच्चैप्रदेशस्थं तर जश'च्चप्रदेशस्थाम्रत: । ८. ब याचते । ९.फ टंको। १०. श पूर्णो व ततो। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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