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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-१५, ५० : एकदा सुभद्राया मुखं विरूपकं विलोक्य पप्रच्छ — प्रिये, किं ते मुखस्य वैरूप्यं प्रवर्तते । तयाभाणि - मे भ्राता शालिभद्रो गृहे वैराग्यं भावयन्नास्ते इति मे दुःखं प्रवर्तते । तदा धन्यकुमारोऽवोचत् - हे प्रियेऽहं तं संबोधयामि त्वं दुःखं त्यज । तदा तद्गृहमियाय बभाषे च - शालक, सांप्रतं किमिति मे गृहं नागच्छसि । स उवाचाहं तपोऽभ्यासं कुर्वस्तिष्ठामीति नागच्छामि । धन्यो बभाण - यदि त्वं तपोऽर्थी किमभ्यासेन । वृषभादयस्तदन्तरेणैव तपो जगृहुः । त्वमभ्यासं कुर्वन् तिष्ठाहं तपो गृह्णामीति तस्मान्निर्गत्य स्वगृहमागत्य धनपालाख्यं स्वज्येष्ठपुत्रं स्वपदे निधाय श्रेणिकादिभिः क्षमितव्यं विधाय ' मातापिताभ्रातृशालिभद्रादिभिश्च श्री वर्धमानसमवसरणे दीक्षां बभार, सकलागमधरो भूत्वा बहुकालं तपो विधायावसाने नवमासान् सल्लेखनां कृत्वा प्रायोपगमनविधिना तनुं तत्याज, सर्वार्थसिद्धिं ययौ । धनपालादयो यथायोग्यां गतिं ययुः । इति वत्सपालोऽपि सकृन्मुनिदानानुमोदफलेनैवंविधो जातोऽन्यः किं न स्यादिति ॥ १५ ॥ ३३० [ ५७ ] यासीत्सोमामरस्य द्विजकुलविदिता नारी पतिरता दत्त्वान्नं भर्तु भीतापि सुगुणमुनये भक्त्या जिनपतेः । गाँव आदि दिये । इस प्रकार वह सुखसे कालयापन करने लगा । एक समय धन्यकुमारने सुभद्रा के मुखको मलिन देखकर उससे पूछा कि प्रिये ! तेरा मुख मलिन क्यों हो रहा है ? इसपर उसने कहा कि मेरा भाई शालिभद्र घर में स्थित रहकर वैराग्यका चिन्तन कर रहा है | इससे मैं दुःखी हूँ । यह सुनकर धन्यकुमारने कहा कि हे प्रिये ! मैं जाकर उसको सम्बोधित करता हूँ, तुम दुःखका परित्याग करो । यह कहकर धन्यकुमार उसके घर जाकर बोला कि हे साले शालिभद्र ! आजकल तुम मेरे घरपर क्यों नहीं आते हो ? उत्तरमें शालिभद्र बोला कि मैं तपका अभ्यास कर रहा हूँ, इसलिए तुम्हारे घर नहीं पहुँच पाता हूँ । इसपर धन्यकुमारने कहा कि यदि तुम तपको ग्रहण करना चाहते हो तो फिर उसके अभ्याससे क्या प्रयोजन है ? देखो ! वृषभादि तीर्थंकरोंने अभ्यासके बिना ही उस तपको स्वीकार किया था । तुम उसका अभ्यास करते हुए यहींपर स्थित रहो और मैं जाकर उस तपको ग्रहण कर लेता हूँ। ऐसा कहता हुआ धन्यकुमार उसके घरसे निकलकर अपने घर आया । वहाँ उसने धनपाल नामके अपने ज्येष्ठ पुत्रको राज्य देकर श्रेणिक आदि जनों से क्षमा माँगी और फिर माता, पिता, भाइयों एवं शालिभद्र आदिके साथ श्री वर्धमान जिनेन्द्रके समवसरणमें जाकर दीक्षा धारण कर ली । उसने समस्त आगम में पारंगत होकर बहुत समय तक तपश्चरण किया । अन्तमें उसने नौ महीने तक सल्लेखना करके प्रायोपगमन संन्यासकी विधि से शरीर को छोड़ दिया। इस प्रकार मरणको प्राप्त होकर वह सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ । धनपाल आदि भी यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए । इस प्रकार बछड़ों को चरानेवाला वह अकृतपुण्य भी जब एक बार मुनिदानकी अनुमोदना करनेसे ऐसी विभूतिको प्राप्त हुआ है तब क्या दूसरा विवेकी प्राणी वैसी विभूतिको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य होगा ॥ १५ ॥ ब्राह्मण कुल में प्रसिद्ध व पतिमें अनुरक्त जिस सोमदेवकी स्त्रीने पतिसे भयभीत होकर भी जिनेन्द्रकी भक्तिके वश उत्तम गुणोंके धारक मुनिके लिए आहार दिया था वह उसके प्रभावसे १. श मातापित्रा भ्रातु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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