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________________ ६-१६, ५७ ] ६. दानफलम् १६ नेमेक्षी' बभूव प्रबलगुणगणा रोगादिरहिता तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ||१६|| ३३१ अस्य कथा- - अत्रैवार्यखण्डे सुराष्ट्रविषये गिरिनगरे राजा भूपालस्तत्र विप्रः सोमशर्मा भार्या अग्निला, पुत्रौ सप्तवर्षपञ्चवर्षवयोयुतौ शुभंकर-प्रभंकरनामानौ । ते सोमशर्मादयः सुखेन तस्थुः । एकदा सोमशर्मणो गृहे श्राद्धदिनमागतम् । तद्दिने तेन बहवो विप्राः आमन्त्रिताः । ते च पिण्डदानं कर्तुं जलाश्रयं ययुः । इतो मध्याह्ने ऊर्जयन्तगिरिनिवासी वरदत्तनामा महामुनिर्मासोपवासपारणायां गिरिनगरं चर्यार्थ प्रविष्टो न केनापि दृष्टोऽग्निलया दृष्टो जैनीजनसंसर्गात्तन्मार्ग प्रविबुध्य सा संमुखं गत्वा तत्पादयोः पपात बभाषे च - स्वामिन्नहं ब्राह्मणी, तथापि मन्मातापितृवर्गो जैन' इति मे व्रतशुद्धिर्विद्यते, ततो भाण्डभाजनशुद्धिरप्यस्ति । तस्मान्मे कृपां कृत्वा मे गृहे तिष्ठ परमेश्वर, इति यथोक्तवृत्या स्थापयामास । वरदत्तमुनिस्तु कृपाबहुलत्वात् तद्भक्तिं विलोक्य जहर्ष स्थितवांश्च । ततोऽग्निलानन्देन नवविधपुण्यसप्तगुणान्विता तस्मै श्राहारदानं चकार भर्तृ भयव्यग्रापि । तदवसरे देवगतावायुर्बबन्ध । मुनिनैरन्तर्यानन्तरं गृहान्निर्गच्छन् पिण्डप्रदानादिकं निष्ठाप्य तद्गृहं प्रविशद्भिर्विप्रैर्टः । भगवान् नेमि जिनेन्द्रकी यक्षी हुई । वह उत्तम गुणांके समूह से युक्त होकर रोगादिसे रहित थी । इसलिए निर्मल गुणसमूहके धारक भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिये ||१६|| इसकी कथा इस प्रकार है - इसी आर्यखण्ड में सुराष्ट्र देश के अन्तर्गत गिरिनगर में भूपाल नामका राजा राज्य करता था । उसके यहाँ एक सोमशर्मा नामका पुरोहित था । उसकी स्त्रीका नाम अग्निला था । इनके शुभंकर और प्रभंकर नामके दो पुत्र थे जो क्रमसे सात व पाँच वर्षकी अवस्थावाले थे । वे सब सोमशर्मा आदि सुखसे कालयापन कर रहे थे । एक समय सोमशर्मा के घर श्राद्धका दिन आकर उपस्थित हुआ । उस दिन सोमशर्माने बहुत से ब्राह्मणों को भोजन के लिए निमन्त्रित किया । वे सब पिण्डदान करनेके लिए जलाशय के ऊपर गये । इधर मध्याह्नके समय में ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर रहनेवाले वरदत्त नामके महामुनि एक महीनेके उपवासको समाप्त करके पारणा के दिन आहार के लिए गिरिनगर के भीतर प्रविष्ट हुए । परन्तु उन्हें किसीने नहीं देखा । वे अग्निलाको दिखायी दिये । वह जैनांक संसर्ग में रहनेसे आहारदानकी विधिको जानती थी । इसलिए वह सन्मुख जाकर उनके पाँवों में गिर गई और बोली कि हे स्वामिन् ! मैं यद्यपि ब्राह्मणी हूँ, फिर भी मेरे माता-पिता आदि सब जैन हैं । इसलिए मेरे व्रतशुद्धि है और इसीसे द्रव्यशुद्धि व पात्रशुद्धि भी है । अतएव हे परमेश्वर ! मेरे ऊपर कृपा करके मेरे घर ठहरिये । इस प्रकार उसने शास्त्रोक्त विधिसे उनका पड़िगाहन किया । वरदत्त मुनि दयालु थे, इसलिए वे उसकी भक्तिको देखकर सहर्ष वहाँ ठहर गये । तब सानन्द अग्निलाने पतिकी ओरसे भयभीत होनेपर भी उन्हें सात गुणोंसे युक्त होकर नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान किया । इस अवसरपर उसने देवायुको बाँध लिया । मुनिराज आहार लेकर उसके घरसे निकल ही रहे थे कि इतने में पिण्डदानादिको समाप्त कर वे ब्राह्मण जलाशय से आये और सोमशर्मा के घर के भीतर प्रविष्ट हुए। उन सबने जाते Jain Education International १. श ते मे यक्षी । २. श वयोयुयुतौ । ३. ब पिंड प्रदानं । ४. फ नैकोनापि शकेनापि । ५. व वग्र्गों जैना । ६ ब प्रतिपाठोऽयम् । श तस्मादाहारदानं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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