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________________ ६-१५, ५६ ] ६. दानफलम् १५ ३२९ पालो राजगृहपुरस्थस्वभगिनीपुत्रशालिभद्रान्तिके किमप्यपेक्ष्य राजगृहमितो धन्यकुमारप्रासादाग्रे स्थित्वा स शालिभद्रस्य गृहं पृच्छंतस्थौ । अास्थानस्थो धन्यकुमारो राजा तं विलोक्य परिज्ञाय तन्निकटं जगाम, तत्पादयोः पपात । तदा सर्वेऽपि लोकाः किमिदमाश्चर्य मित्यवलोकयन्तस्तस्थुः । तदा धनपालोऽत्र त- भो नराधीशाप्रतिहतप्रतापो भूत्वा चिरं पृथ्वीं पाहि । अहं मन्दभाग्यो वैश्यस्त्वं पृथिवीपतिः इति त्वमेव मे नमस्काराहः इति । धन्यकुमारोऽवोचत्-त्वं मत्पिताहं त्वत्पुत्रो धन्यकुमारो [रः], ततस्त्वमेव नमस्काराहः। तदा परस्परं कण्ठमाश्लिष्य रुदिती, प्रधाननिवारितौ राजभवनं प्रविष्टौ । धन्यकुमारः कथितात्मवृत्तः स्वमात्रादेः स्थिति पृष्टवान् । पिता बभाण- सर्वे जीवन सन्ति, किंतु तन्नास्ति यद्भुज्यते । तदा धन्यकुमारः सर्वेषां यानादिकं प्रस्थापितवान् । तदा प्रभावत्यादयो विभूत्या तत्र ययुः । तदागमनमाकर्ण्य धन्यकुमारोऽतिविभूत्यार्थपथं निर्ययो, मातरं ननाम, भ्रातृनपि । ते लजया अधोमुखा अभूवंस्तदा धन्यकुमारोऽव त-हे भ्रातरो भवत्प्रसादेन मे राज्यं जातमिति यूयं निःशल्या भवन्तु । तदा ते आत्मानं निनिन्दुस्ततो धन्यकुमारः सर्वान् पुरं प्रवेश्य तेभ्यो यथायोग्यं ग्रामादिकं दत्त्वा सुखेन तस्थौ । भी दुर्लभ हो गया। तब वह राजगृह नगरमें स्थित अपने भानजे शालिभद्र के पासमें कुछ अपेक्षा करके राजगृह नगरकी ओर गया। वहाँ पहुँचकर वह धन्यकुमारके भवनके सामने स्थित होकर शालिभद्रके घरका पता पूछने लगा। उस समय धन्यकुमार राजा सभाभवनमें बैठा हुआ था। वह पिताको देखकर व पहिचान करके उसके पासमें गया और पाँवोंमें गिर गया। तब सभाभवनमें स्थित सब ही जन इस घटनाको आश्चर्यपूर्वक देखने लगे। उस समय धनपाल बोला कि हे राजन् ! तुम अखण्ड प्रतापके धारी होकर चिर काल तक पृथिवीका पालन करो । मैं एक पुण्य. हीन वैश्य हूँ और तुम राजा हो । इस कारण मेरे लिए नमस्कारके योग्य तुम ही हो । इसपर धन्यकुमार बोला कि तुम मेरे पिता हो और मैं तुम्हारा पुत्र धन्यकुमार हूँ। इसलिए तुम ही मेरे द्वारा नमस्कार करनेके योग्य हो। उस समय वे दोनों एक दूसरेके गले लगकर रो पड़े । तब मन्त्रीगंण उन दोनों को किसी प्रकारसे शान्त करके राजभवनके भीतर ले गये। वहाँ धन्यकुमारने अपना सब वृत्तान्त कहकर पितासे अपनी माता आदिकी कुशलताका समाचार पूछा । उत्तरमें पिताने कहा कि जीते तो वे सब हैं, परन्तु अब वह नहीं रहा है जो खाया जाय- उस जीवनके आधारभूत भोजनका मिलना सबके लिये दुर्लभ हो गया है। यह जानकर धन्यकुमारने सबको ले आनेके लिये सवारी आदिको भेज दिया । तब प्रभावती आदि सब ही कुटुम्बी जन विभूतिके साथ वहाँ जा पहुंचे। उनके आनेके समाचारको जानकर धन्यकुमार महती विभूतिके साथ उन सवको लेने के लिए आधे मार्ग तक गया। वहाँ पहुँचकर उसने पहिले माताको और तत्पश्चात् भाइयों को भी प्रणाम किया। उस समय उन सबने लज्जासे अपना मुख नीचे कर लिया । तब धन्यकुमार बोला कि हे भाइयो ! आप लोगों को कृपासे मुझे राज्यकी प्राप्ति हुई है। इससे आप सब निश्चिन्त होकर रहें । इस स्थितिको देखकर धन्यकुमारके उन भाइयोंको अपने कृत्यके ऊपर बहुत पश्चात्ताप हुआ । तत्पश्चात् धन्यकुमारने सबको नगरके भीतर ले जाकर उनके लिये यथायोग्य १. बसा। २. ब पृथ्वीपति अहं । ३. प नमस्कारा इति बनमस्काराहं इति । ४. ब जनादिक श धानादिकं । ५..श भवन्त । Jain Education Internationes For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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