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________________ ३२८ पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-१५, ५६ : स्तदर्शनेनोपशान्ति ययौ, संमुखमागत्य तं नत्वा दिव्यासने उपवेशयांचकारोक्तवान्स्वामिनियन्तं कालं त्वद्भाण्डागारिको भूत्वाऽमुंप्रासादमिदं द्रव्यं च रक्षन् स्थितस्त्वमागतोऽसि, सर्व स्वीकुर्विति । सर्व समर्प्य त्वभृत्योऽहं स्मरणे श्रागच्छामीति विज्ञाप्याशी बभूव । कुमारो रात्रौ तत्रैवास्थात् । गुणवत्यादयः तद्गतिरेवास्माकं गतिरिति प्रतिज्ञया तस्थुः । प्रातस्तस्मानिर्गत्य पुराभिमुखमागच्छन्तं कुमारं विलोक्य राज्ञः पौराणां च कौतुकमासीत् । राजाभयकुमारादिभिरर्धपथमाययौ, स्वराजभवनं प्रवेश्य 'किंकुलो भवान्' इति पप्रच्छ । कुमारोऽब्रूत- उज्जयिन्यां वैश्यात्मजोऽहं तीर्थयात्रिकः । ततो नृपो गुणवत्यादिभिः षोडशकन्याभिस्तस्य विवाहं चकार अर्धराज्यं च ददौ । धन्यकुमारस्तत्प्रासादस्य समन्तात्' पुरं कृत्वा तत्प्रासादे राज्यं कुर्वन् तस्थौ।। __ इतः उज्जयिन्यां कुमारादर्शने राजादीनां दुःखमभूत् । मातापित्रोः किं प्रष्टव्यम् । तौ सपुत्रौ तन्निधिरक्षकदेवताभिः रात्री निर्धाटितौ। गत्वा पूर्वस्मिन् गृहे स्थितौ । पुरजनानां कौतुकं जातमहो वज्रहृदयोऽयं तथाविधे पुत्रे गते जीवति इति । कतिपयदिनासाभावादन. कुमार जाकर उस राक्षसभवनके भीतर प्रविष्ट हुआ। परन्तु उसको देखते ही राक्षस शान्त हो गया । तब उसने धन्यकुमारके सामने उपस्थित होकर उसे नमस्कार किया और दिव्य आसनके ऊपर बैठाया । फिर वह धन्यकुमारसे बोला कि हे स्वामिन् ! मैं इतने समय तक आपका भण्डारी होकर इस भवनकी और इस धनकी रक्षा करता हुआ यहाँ स्थित था । अब चूकि आप आ गये हैं, अतएव इस सवको स्वीकार कीजिये । इस प्रकार कहकर उसने उस सब धनको धन्यकुमारके लिये समर्पित कर दिया। अन्तमें वह यह निवेदन करके कि 'मैं आपका सेवक हूँ, आप जब मेरा स्मरण करेंगे तब मैं आकर उपस्थित हो जाऊँगा' यह कहते हुए अदृश्य हो गया । धन्यकुमार रातमें वहींपर रहा। गुणवती आदि उन कन्याओंने उस समय यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो अवस्था धन्यकुमारकी होगी वही अवस्था हमारी भी होगी। उधर प्रातःकालके हो जानेपर धन्यकुमार उस राक्षस भवनसे निकलकर नगरकी ओर आ रहा था । उसे देखकर राजा और नगर-निवासियोंको बहुत आश्चर्य हुआ। तब राजा श्रेणिक अभयकुमार आदिकोंके साथ उसके स्वागतार्थ आधे मार्ग तक आया। तत्पश्चात् श्रेणिकने उसे अपने राजभवनके भीतर ले जाकर उससे अपने कुलके सम्बन्धमें पूछा । उत्तरमें कुमारने कहा कि मैं उज्जयिनीका रहनेवाला एक वैश्यपुत्र हूँ और तीर्थयात्रा में प्रवृत्त हूँ। तब राजाने गुणवती आदि सोलह कन्याओंके साथ उसका विवाह कर दिया और साथमें आधा राज्य भी दे दिया । तब धन्यकुमार उस भवनके चारों ओर नगरकी रचना कराकर राज्य करता हुआ वहाँ उस भवनमें स्थित हुआ। इधर उज्जयिनीमें धन्यकुमारके अदृश्य हो जानेपर- उसके देशान्तर चले जानेपर-राजा आदिकोंको बहुत दुःख हुआ। माता और पिताकी अवस्थाका तो पूछना ही क्या है ? उन निधियोंकी रक्षा करनेवाले देवोंने पुत्रोंके साथ उन दोनोंको रातमें बाहर निकाल दिया । तब वे वहाँसे जाकर अपने पहलेके घरमें रहने लगे। उस समय नगर-निवासियोंको बहुत आश्चर्य हुआ। वे विचार करने लगे कि देखो यह धन्यकुमारका पिता (धनपाल) कितना कठोर हृदय है जो वैसे प्रभावशाली पुत्रके चले जानेपर भी जीवित है। कुछ ही दिनोंके पश्चात् धनपालके लिए भोजन १. फ तत्प्रासादसमन्तात् । २.प फ ब पृष्टव्यम् । ३. श देवताभि रात्री । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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