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६. दानफलम् १५ मालाः चकार। ता उद्यानक्रीडाथै गच्छता राजकुमाराणामदर्शयत्। तैौल्ये पृष्टे दीनारसहस्त्रं निरूपितवान् । तैरर्थिभिर्दत्तम् । स च श्रेष्ठिनोऽदत्त । स पुत्रीदानमभ्युपजगाम ।
तत्ख्यातिमाकर्ण्य तं च विलोक्य गुणवत्यत्यासक्ता तच्चिन्तया क्षीणविग्रहा जले। अन्यदा कुमारो छूते प्रधानादिपुत्रान् विश्वान् जिगाय । तदा तत्र नृपपुत्रोऽभयकुमारो विज्ञानमदगर्वितः, तमपि चन्द्रकवेध्यं विद्ध्वा जिगाय धन्यकुमारः। ततः सर्वेऽपितं द्विषन्ति, तस्य वधं चिन्तयन्ति । इतो गुणवत्याः कार्यस्य कारणमवधार्य श्रेणिकोऽभयकुमारादिमिरालोचितवान् 'किं तस्मै कन्या दातुमुचितं न वा' इति। अभयकुमारोऽब्रूत-नोचितमशातकुलत्वात् । राजावोचत्- तर्हि कुमारी मरिष्यति । तत्सुत उवाच- यावत्स जीवति तावत् कुमार्या दुःखं तिष्ठति । तं च निरपराधिनं मारयितुं नायाति, किंतूपायेन मारणीयः । स चोपायो तिष्ठते- नगराद् बहिः राक्षसभवनमस्ति, तत् प्रविष्टा पूर्व बहवो मृताः। अतः 'तद्यः प्रवेक्ष्यति तस्य अधराज्यं गुणवती पुत्रीं च दास्यामि'इति पुरे घोषणा क्रियताम् । तां धृत्वा गर्वितः स एव प्रविश्य मरिष्यति । राशातथा कृते सर्वैनिषिद्धोऽपि तद् विवेश । स राक्षसफिर उन फूलोंसे धन्यकुमारने अतिशय श्रेष्ठ मालाएँ बनाकर उन्हें वनक्रीड़ाके लिये जाते हुए राजकुमारोंको दिखलाया । उनको देखकर सजकुमारोंने उनका मूल्य पूछा । धन्यकुमारने उनका, मूल्य एक हज़ार दीनार बतलाया। तदनुसार उतना मूल्य देकर राजकुमारोंने उन मालाओंको खरीद लिया। इस प्रकारसे प्राप्त हुई उन दीनारों को ले जाकर धन्यकुमारने राजसेठ श्रीकीर्तिको दे दिया । तब श्रीकीर्तिने कृत प्रतिज्ञाके अनुसार उसके लिये अपनी पुत्रीको देना स्वीकार कर लिया।
धन्यकुमारकी कीर्तिको सुनकर और उसे देखकर गुणवती उसके विषयमें अतिशय आसक्त होनेके कारण शरीरसे कृश होने लगी । एक बार धन्यकुमारने द्यूतक्रीड़ामें सब ही मन्त्रियों आदिके पुत्रोंको जीत लिया था। तथा वहाँ जो श्रेणिक राजाका पुत्र अभयकुमार अपने विशिष्ट ज्ञानके मदसे उन्मत्त था उसे भी उसने चन्द्रकवेध्यको वेधकर जीत लिया था। इसीलिये वे सब वैरभावके वशीभूत होकर उसके मार डालनेके विचारमें रहते थे। इधर गुणवतीके दुर्बल होनेके कारणको जानकर राजा श्रेणिकने अभयकुमार आदिके साथ विचार किया कि क्या धन्यकुमारके लिए पुत्री गुणवतीको देना योग्य है या नहीं। उस समय अभयकुमारने कहा कि उसके लिए गुणवतोको देना योग्य नहीं है, क्योंकि, उसके कुलके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है । इसपर श्रेणिकने कहा कि वैसी अवस्थामें तो पुत्री मर जावेगी। यह सुनकर अभयकुमारने कहा कि जब तक वह जीता है तब तक कुमारीका दुःख अवस्थित रहेगा, उसके मर जानेपर वह उस दुःखसे मुक्त हो सकती है। परन्तु वह निरपराध है, अतः ऐसी अवस्थामें वह मारनेमें नहीं आता । इसलिए उसे उपायसे मारना उचित होगा। और वह उपाय यह है- नगरके बाहर जो राक्षसभवन है उसमें प्रविष्ट होकर पूर्व समयमें बहुत-से मनुष्य मरणको प्राप्त हो चुके हैं । इसलिए 'जो कोई उस राक्षसभवनमें प्रवेश करेगा उसके लिये मैं आधा राज्य और गुणवती पुत्रीको दूंगा' ऐसी आप नगरमें घोषणा करा दीजिये । उस घोषणाको स्वीकार करके वही अभिमानी उसके भीतर प्रवेश करेगा और मर जावेगा। तदनुसार राजाके द्वारा घोषणा करानेपर सब जनोंके रोकनेपर भी धन्य
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जिगाप धन्यकुमारस्तदा । २. बकुमार्य दुःखेन तिष्ठति । ३. ५ फश निरपराधितं । ४ ब न याति । ५. ब चोपायो तो नगद्वही रा । ६. श प्रबिष्ट्वा । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शति तस्मादर्धराज्यं ।
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