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________________ :६-१४, ५५ ] ६. दानफलम् १४ ३१३ अस्य कथा- अथ गौरी तत्र तमेव तथा स्वभवानपृच्छत् । स आह- अत्रैवेभपुरे इभ्यधनदेवस्य वल्लभा यशस्विनी' खे चारणान् दृष्वा जातिस्मरा जाता। कथम् । धातकीखण्डपूर्वमन्दरापरविदेहारिष्टपुरे आनन्दश्रेष्ठिनः पत्नी नन्दा अमितगति-सागरचन्द्रमुनिदानेन देवकुरुषु जाता। तत ईशानेन्द्रस्य देव्यभूवम् , ततोऽहमिति निरूपितं सखीनाम् । ततः सुभद्राचार्यान्ते गृहीतप्रोषधफलेन सौधर्मेन्द्रस्य प्रिया जाता। ततः कोशाम्भ्यां इभ्यसमुद्रदत्तसुमित्रयोरपत्यं धर्ममप्तिर्जाता जिनमतिक्षान्तिकान्ते तपसा शुक्रन्द्रस्य प्रिया भूत्वा त्वं जातासि । तवापि तथैव मुक्तिः । श्रुत्वा हृष्टा सा । एवं विवेकविकलापि स्त्री तथाविधा जातान्यः किं न स्यादिति ॥ १३ ॥ [ ५५ ] दत्त्वा दानं मुनिभ्यो नृसुरगतिभवं भूपालतनुजा सेवित्वा सारसौख्यं तदमलफलतो विष्णोः सुवनिता । जाता पद्मावती सा जिनपदकमले भृङ्गी ह्यमलिना तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥ १४ ॥ इसकी कथा इस प्रकार है - सुसीमा और गान्धारीके समान जब गौरीने भी उन वरदत्त गणधरसे अपने भवोंको पूछा तब वे बोले- यहींपर इभ ( इभ्य ) पुरमें स्थित सेठ धनदेवके यशस्विनी नामकी पत्नी थी। एक दिन उसे आकाशमें जाते हुए चारणमुनिको देखकर जातिस्मरण हो गया। तब उसने अपनी सखियोंको बतलाया कि धातकीखण्ड द्वीपमें स्थित पूर्वमेरु सम्बन्धी अपरविदेह के भीतर अरिष्टपुरमें एक आनन्द नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम नन्दा था । वह अमितगति और सागरचन्द्र मुनियोंको दान देनेसे देवकुरुमें उत्पन्न हुई। वहाँ उत्तम भोगभूमिके सुखको भोगकर तत्पश्चात् ईशान इन्द्र की देवी हुई। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर यहाँ मैं उत्पन्न हुई हूँ। यह कहकर उसने ( यशस्विनीने ) सुभद्राचार्यके निकटमें प्रोषधव्रतको ग्रहण कर लिया। उसके प्रभावसे वह मरणको प्राप्त होकर सौधर्म इन्द्रकी वल्लभा हुई । वहाँ से च्युत होकर वह कौशिम्बी पुरीमें सेठ सनुद्रदत्त और सुमित्राके धर्ममति नामकी पुत्री हुई । उसने जिनमति आर्यिकाके समीपमें जिनगुण नामक तपको ग्रहण किया। उसके प्रभावसे वह शुक्र-इन्द्रकी वल्लभा हुई और फिर वहाँ से च्युत होकर तुम उत्पन्न हुई हो। तुम भी सुसीमा और गान्धारीके समान तीसरे भवमें मुक्ति को प्राप्त करोगी। उपर्युक्त भवों के वृत्तान्तको सुनकर गौरीको अपार हर्ष हुआ । इस प्रकार विवेकसे रहित भी वह स्त्री जब इस प्रकारको विभूतिको प्राप्त हुई है तब दूसरा विवेकी जीव वैसा क्यों न होगा ? अवश्य होगा ॥१३॥ अपराजित राजाकी पुत्री विनयश्री मुनियोंके लिये दान देकर उसके निर्मल फलसे मनुष्य और देवगतिके श्रेष्ठ सुखका अनुभव करती हुई पद्मावती नामकी कृष्णकी पत्नी हुई जो जिन भगवान्के चरण-कमलों में भ्रमरीके समान अनुराग रखती थी। इसलिए निर्मल गुणसमूहसे संयुक्त भव्य जीवों को उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥१४॥ १. प यशश्विनी ब यसस्विनो श यास्वनी। २. फ ब खेचराणां । ३. ५ बश जातिस्मरो। ४. फ धर्ममती जाता। ५. ज प कंतिकान्ते । Jain Education Interna egal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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