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________________ ३१२ पुण्यावकथाकोशम् लोके दानाद्विभाषे किमहमनुपमं सौख्यं तनुभृतां तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भयैः सुमुनये ||१२|| अस्य कथा - अथ गान्धारी तत्र तमेव तथा स्वभवसंवन्धं पृच्छति स्म । स ग्रहवायोध्याधिपरुद्रदासस्य प्रिया विनयश्रीर्वरभट्टारकदानप्रभावेनोत्तरकुरुषूत्पन्ना, ततश्चन्द्रस्य देवी जाता । ततोऽत्रैव विजयार्धोत्तरश्रेणी गगनवल्लभपुरेशविद्युद्वेगविद्युन्मत्योर्विनयश्रीर्जाता, नित्यालोकपुरेशमहेन्द्रविक्रमेण परिणीता । महेन्द्रविक्रमश्चारणान्ते धर्मश्रुतेरनन्तरं हरिवाहनं राज्यस्थं कृत्वा निष्क्रान्तः । विनयश्रीस्तपसा सौधर्मेन्द्रस्य देवी भूत्वा त्वं जातासि तथैव सेत्स्यसि । श्रुत्वा सापि हृष्टा । एवं विवेकरहिता स्त्री बाला सकृत्कृतमुनिदान कले नैवंविधा बभूवान्यः किं न स्यादिति ॥ १२ ॥ [ ५४ ] गौरी श्रीविष्णुभार्याजनि जनविदिता विख्यातविभवा पूर्व या वैश्यपुत्री दिविज- नृभवजं सौख्यं ह्यनुपमम् । भुक्त्वा दानस्य सुफलात्तदनु बहुगुणा सुधर्मविमला तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥१३॥ लोक प्राणियों को दानके प्रभावसे जो अनुपम सुख प्राप्त होता है उसके विषय में मैं क्या कहूँ ? इसलिए निर्मल गुणों के समूह से संयुक्त भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिए ॥१२॥ इसकी कथा इस प्रकार है - पूर्व कथानक में जिस प्रकार वरदत्त गणधर से सुसीमाने अपने भवको पूछा था उसी प्रकार गान्धारीने भी उनसे अपने पूर्व व भावी भवोंके सम्बन्ध में प्रश्न किया । तदनुसार गणधर बोले- यहींपर अयोध्या नगरीके राजा रुद्रदासके विनयश्री नामकी पत्नी थी । वह उत्तम मुनिदान - पतिके साथ श्रीधर मुनिके लिए दिये गये आहारदान - के प्रभावसे उत्तरकुरु में उत्पन्न होकर तत्पश्चात् ज्योतिर्लोक में चन्द्रकी देवी हुई । फिर वहाँ से च्युत होकर वह यहीं पर विजयार्घ पर्वतकी उत्तर श्रेणिमें गगनवल्लमपुर के राजा विद्युद्वेग और रानी विद्युन्मति विनयश्री नामकी पुत्री उत्पन्न हुई उसका विवाह नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रमके साथ हुआ । महेन्द्रविक्रमने चारणमुनिसे धर्मश्रवण करके हरिवाहन पुत्रको राज्य दिया और स्वयं दीक्षा ले ली। वह विनयश्री तप ( सर्वभद्र उपवास) को स्वीकार कर उसके प्रभाव से सौधर्म इन्द्रकी देवी हुई और फिर वहाँ से च्युत होकर यहाँ तुम उत्पन्न हुई हो । सुसीमा के समान तुम भी तीसरे भवमें मोक्षको प्राप्त करोगी। इन उपर्युक्त भत्रको सुनकर गान्धारीको भी बहुत हर्ष हुआ । इस प्रकार जब विवेकसे रहित बाला स्त्री एक बार मुनिको दान देकर उसके फलसे ऐसी विभूतिको प्राप्त हुई है तब भला दूसरा विवेकी जीव क्या उसके फलसे अनुपम विभूतिका भोक्ता न होगा ? अवश्य होगा ॥ १२ ॥ । Jain Education International [ ६-१३, ५४ : जो पहले वैश्यकी पुत्री ( नन्दा ) थी वह दानके उत्तम फलसे देवगति और मनुष्यभवके अनुपम सुखको भोगकर तत्पश्चात् निर्मल धर्मको प्राप्त करके बहुत गुणों एवं प्रसिद्ध विभूति से सुशोभित होती हुई श्रीकृष्णकी पत्नी गौरी हुई है, इस बातको सब ही जन जानते हैं । इसलिए निर्मल गुणसमूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिए || १३ | १. फ किमिह । २. श नृभवं सौख्यं । ३. ब दानस्य फला । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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