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________________ ३१४ पुण्यानवकथाकोशम् [६-१४, ५५ : अस्य कथा-पद्मावत्या तत्र तथैव स स्वभवसंबन्धं पृष्टः सन्नाह-अत्रैवावन्तिपूजयिनीशापराजितविजययोविनयश्रीर्जाता, हस्तिशीर्षपुरेश-हरिपेणेन परिणीता, वरदत्तमुनये दत्तआहारदाना कतिपयदिनैः शय्यागृहे पत्या सह कालागरुप्रवरधूमेन मृता, हैमवते जाता। ततश्चन्द्रस्य देवी बभव । ततो मगधदेश-शाल्मलीखण्डग्रामे ग्रामकूटकदेविल-जयदेव्योः पद्मा जाता, वरधर्मयोगिसकाशे अज्ञातवृक्षफलाभक्षणगृहीतव्रता, एकदा चण्डदा बा]णभिल्लेन तदग्रामजनो बन्दिग्राहं गृहीत्वा स्वपल्लों नीतः । सोऽपि राजगृहेशसिंहरथेन हतः। तत्रत्या जनाः पलाय्याटवीं प्रविष्टाः, किंपाकफलभक्षणान्मृताः । सा व्रतप्रभावेन जीविता स्वग्राम आगत्य बहुकालेन मृता, हैमवते जाता, ततः स्वयंप्रभाचलनिवासिस्वयंप्रभदेवस्य देवी जाता, ततो भरते जयन्तपुरेशश्रीधर-श्रीमत्योर्विमलश्रीर्जाता, भद्रिलपुरेशमेघवाहनाय दत्ता । मेघघोषं सुतं प्राप्य पद्मावतीक्षान्तिकाभ्यासे तपसा सहस्त्रारेन्द्रस्य देवी भत्वा त्वं जातासि, तथैव सेत्स्यसीति । निशम्य सापि हटा । इति विवेकविकला मिथ्यादृष्टिरपि स्त्री सत्पात्र इसकी कथा इस प्रकार है- इसी प्रकारसे पद्मावतीने भी उनसे अपने भव पूछे । तदनुसार वरदत्त गणधरने उसके भव इस प्रकार बतलाये - यहींपर अवन्ति देशमें स्थित उज्जयिनी पुरीके राजा अपराजित और रानी विजयाके एक विनयश्री नामकी पुत्री थी जो हस्तिशीर्ष पुरके राजा हरिषेणको दी गई थी। उसने वरदत्त मुनिके लिये आहारदान दिया था। कुछ दिनोंके पश्चात् वह रात्रिमं पतिके साथ शयनागारमें सो रही थी। वहाँ वह कालागरुके धुएँसे पति के साथ मरणको प्राप्त होकर हैमवत क्षेत्र ( जघन्य मार्गभूमि ) में उत्पन्न हुई। फिर वह आयुके अन्तमें मरणको प्राप्त होकर चन्द्रकी देवी हुई। वहाँ से च्युत होकर मगध देशके अन्तर्गत शाल्मलीखण्ड ग्राममें गाँवके मुखिया देविल और जयदेवीके पद्मा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। उसने वरधर्म मुनिके समीपमें अनजान वृक्षके फलोंके न खानेका नियम लिया था। एक समय चण्डदा(बा)ण भीलने उस गाँवके मनुष्योंको पकड़वा कर अपनी भील बस्तीमें बुलाया । तब उन सबके साथ पदमा भी पहुँची। उस भीलको राजगृहके राजा सिंहरथने मार डाला । तब उक्त भीलके द्वारा बन्धनबद्ध किये गये वे सब भागकर एक वनके भीतर प्रविष्ट हुए और वहाँ किंपाक फलों के खानेसे मर गये । परन्तु पद्मा अज्ञात-फल-अभक्षण व्रतके प्रभावसे जीवित रहकर अवने गाँवमें वापस आ गई । वहाँ वह बहुत काल तक रही, तत्पश्चात् मृत्युको प्राप्त होकर हैमवत क्षेत्र ( जघन्य भोगभूमि ) में उत्पन्न हुई । फिर वहाँ से निकलकर स्वयंप्रभ पर्वतके ऊपर स्थित स्वयंप्रभदेवकी देवी हुई । तत्पश्चात् वहाँ से भी च्युत होकर भरतक्षेत्रके भीतर जयन्तपुरके राजा श्रीधर और रानी श्रीमतीके विमलश्री नामकी पुत्री हुई जो भदिलपुरके राजा मेघवाहनके लिए दे दी गई । उसे मेघघोष नामका पुत्र प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वह पद्मावती आर्यिकाके निकटमें दीक्षित होकर तपके प्रभावसे सहस्रार-इन्द्रकी देवी हुई और फिर वहाँ से च्युत होकर तुम हुई हो । सुसीमा आदिके समान तुम भी तीसरे भवमें सिद्धिको प्राप्त करोगी। इस प्रकार अपने भवोंको सुनकर वह पद्मावती भी हर्षको प्राप्त हुई। जब विवेकसे रहित मिथ्यादृष्टि भी स्त्री सत्पात्र १. ब°संबंधः । २. ब देविलविजयदेव्योः । ३. श अज्ञातवृष । ४. फ चण्डदान । ५. फ तद्धाम जनो। ६. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श सापि । ७. ब पल्याज्याटवी प्रविष्टः । ८. ब भक्षणान्मूछिता व्रत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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