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________________ पुण्यास्रवकथाकोशम् [१-४: प्रवरपार्श्वनामकं हरितवर्णदेहकम् । सुकणवीरकैर्यजे भव० ॥२३॥ सुभगवर्धमानकं विबुधवर्धमानकम् । स्तवकपुष्पकैर्यजे भव० ॥२४॥ इति विश्वलतान्तगणेन जिनं विगताखिलदोषसमूहमहम्। वरमुक्तिसुखाय सदा सुयजे परिशुद्धशरीरवचोमनसा ॥२५॥ इति अमुना प्रकारेण पञ्चदिनानि यावत् रात्रावपि जागरणपूर्वकमेव कृत्वा द्वितीयाह्ने यामद्वयं तथा प्रवृत्य' पारणायां चतुर्विंशतियतीन् व्यवस्थाप्य न लभेत चेत् पञ्च एकं च, सभर्तृपुण्याङ्गनाद्वयस्य भोजनवस्त्रादिकं दत्त्वैकैकं मातुलिङ्गं देयम् । एवं चतुर्दिनानि पुष्पाञ्जलि विधाय नवम्यामुपवासं कृत्वा तथैवाभिषेकादिकं चरमाञ्जलिः कर्तव्यः। उक्तप्रकारेण पुष्पाणि न लभेत चेत् पञ्चप्रकारैः पुष्पाञ्जलिं कुर्यात् । एवं त्रिवर्षेरुद्यापने चतुर्विंशतिप्रतिमाः कारयित्वा जिनालयेभ्यो दद्याषिभ्यः पुस्तकादिकं चातुर्वर्णार्य यथाशक्त्या भोजनादिकं देयम् , पटहझल्लरीकलशभृङ्गारारार्तिके धूपदहनचन्द्रोपकं ध्वजचामरादिकं देयम् । एतत्फलेने स्वर्गादिसुखं लभेत । अथ नोद्यापनादौ शक्तिः, तर्हि पञ्च वर्षाणि सुवर्णवर्णतण्डुलान् पुष्पाञ्जलिसंकल्पेन क्षिपेत् , तत्फलं प्राप्नुयादित्युक्ते कन्ययोक्तम्-मयायं विधिहरितवर्ण शरीरके धारक तथा संसारके नाशक हैं उनकी मैं उत्तम कणवीर पुष्पोंके द्वारा पूजा करता हूँ ॥२३॥ जो सुन्दर वर्धमान जिनेन्द्र देवोंके द्वारा अभ्युदयको प्राप्त तथा संसारके नाशक हैं उनकी मैं स्तवक पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥२४॥ इस प्रकारसे मैं उत्तम मोक्षको प्राप्त करनेके लिए समस्त दोषसमूहसे रहित जिनेन्द्र देवकी पवित्र मन, वचन और कायसे सब पुष्पोंके समूहसे निरन्तर पूजा करता हूँ ॥२५॥ इस प्रकार पाँच दिन तक रात्रिमें भी जागरणपूर्वक ही करके दूसरे दिन दो प्रहर तक उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करके पारणाके समय चौबीस मुनियोंकी व्यवस्था करे, यदि चौबीस मुनि प्राप्त न हों तो पाँच मुनियोंकी अथवा एक मुनिकी व्यवस्था करे तथा दो पवित्र सधवा स्त्रियोंको भोजन वस्त्रादि देकर एक-एक मातुलिंग फल देवे । इस प्रकार चार दिन पुष्पांजलिको करके नवमीके दिन उपवास करता हुआ उसी प्रकारसे अभिषेकादिपूर्वक अन्तिम अंजलिको करे । उक्त प्रकारसे यदि पुष्पोंको न प्राप्त कर सके तो पाँच प्रकारोंसे पुष्पांजलिको करे । इस प्रकार तीन वर्षों में उद्यापन करते समय चौबीस जिनप्रतिमाओंको कराकर जिनालयोंके लिए देवे, ऋषियोंके लिए पुस्तकादिको देवे; चातुर्वर्ण संघके लिए शक्तिके अनुसार भोजन आदिको देवे; तथा पटह, झालर, कलश, आरार्तिक, धूपदहन, चंदोवा, ध्वजा और चामर आदिको देवे । इस व्रतके फलसे स्वर्गादिका सुख प्राप्त होता है । यदि उद्यापनादि विषयक शक्ति न हो तो पाँच वर्ष तक पुष्पांजलिके संकल्पसे सुवर्णके समान वर्णवाले तन्दुलोका क्षेपण करे और उसके फलको प्राप्त करे । इस प्रकार यक्षीके कहनेपर कन्याने कहा कि मैं इस विधिको ग्रहण करती हूँ। तब उस १.फ वर्द्धनामकं । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श अमुना पंचप्रकारेण । ३. ब प्रवृत्या । ४.१ लभेत्पंचेत्पंच, फ लभेते चेत् पंच, श न लभरपंचेत्संच । ५. फ प्रकाराणि । ६. फ लभेत् पंच । ७. प श तृभिर्वर्षे उद्यापने, ब त्रिभिवर्षेकद्यापने। ८. फ ब चातुर्वाय । फ दद्या: रिषिभ्यः । फ 'पडह....."देयम्' इत्येतनास्ति । ९. प श पडह। १०. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श भृङ्गारात्तिक । ११. फ एतत्फले । १२. पश शक्ति । १३. ५ श सुवर्णतंदुलान् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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