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________________ १. पूजाफलम् ४ प्रचुरभृङ्गसंचरैविकचनीलकैरवैः । जगति शीतलं यजे भव० ॥१०॥ विबुधचित्तैनन्दनं क्षितिपविष्णुनन्दनम् । कुवलयैर्यजे विभुं भव० ॥११॥ अरुणपनकान्तिकं सुगुणवासुपूज्यकम् । प्रवरकुन्दकैर्यजे भव० ॥१२॥ विपुलसौख्यसंयुजं विमलनामकं यजे । प्रवरमेरुपुष्पकैर्भव० ॥१३॥ वरचरित्रभूषकं नुतमनन्तनामकम् । कनकपद्मकैर्यजे भव० ॥१४॥ निखिलवस्तुबोधकं विदितधर्मनामकम् । नवकदम्बकैर्यजे भव० ॥१५।। भुवनवर्तिकीर्तिकं परमशान्तिनामकम् । विचकिलैर्यजे सदा भव० ॥१६॥ तिलकपुष्पदामकैः प्रचुरपुण्यकारकैः । जगति कुन्थुमायजे भव० ॥१७॥ अरमनङ्गवर्जितं सकलभव्यवन्दितम् । कुरबकेतकैर्यजे भव० ॥१८॥ तमिह मल्लिनामकं त्रिजगदीशनाथकम् । कुटजपुष्पकैर्यजे भव० ॥१९॥ गुणनिधिं च सुब्रतं यमनियमसुव्रतम् । सुमुचकुन्दकैर्यजे भव० ॥२०॥ भुवि नमि सुनामकं भवपयोधिपोतकम् । विमलकुन्दकैर्यजे भव०॥२१॥ शशिकरौघकीर्तिदं विशदनेमिनामकम् । तमरविन्दकैर्यजे भव० ॥२२॥ ( पुष्पदन्त ) जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ ॥९॥ मैं बहुत-से भौरोंके संचारसे संयुक्त ऐसे विकसित नील कमलोंके द्वारा संसारके नाशक शीतल जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ ॥१०॥ मैं देवोंके चित्तको आनन्दित करनेवाले राजा विष्णुके पुत्र श्री श्रेयांस जिनेन्द्रकी कुमुदपुष्पोंसे पूजा करता हूँ। वे भगवान् संसारके नाशक हैं ॥११॥ जो वासुपूज्य जिनेन्द्र लाल कमलके समान कान्तिवाले और संसारके नाशक हैं उन उत्तमोत्तम गुणोंसे संयुक्त वासुपूज्यकी मैं उत्तम कुन्दपुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१२॥ जो विमल जिनेन्द्र निर्मल सुखसे सहित और संसारके नाशक हैं उनकी मैं उत्तम मेरुपुष्पोंसे पूजा करता हूँ॥१३॥ जो देवादिकोंसे स्तुत अनन्त जिनेन्द्र उत्तम चारित्रसे विभूषित एवं संसारके नाशक हैं उनकी मैं चम्पक और कमल पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१४॥ जो जिनेन्द्र 'धर्म' इस नामसे जाने गये हैं ( प्रसिद्ध हैं), समस्त वस्तुओंके जानकार ( सर्वज्ञ ) और संसारके नाशक हैं उनकी मैं नवीन कदम्ब वृक्षके फूलोंसे पूजा करता हूँ॥१५॥ जिनकी कीर्ति लोकमें विस्तृत है तथा जो संसारके नाशक हैं उन उत्कृष्ट शान्तिनाथ नामक जिनेन्द्रकी विचकिल पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१६॥ मैं लोकमें संसारदुःखके नाशक कुन्थु जिनेन्द्रकी अतिशय पुण्यको करनेवाले तिलक पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१७॥ जो अर जिनेन्द्र कामसे रहित, समस्त भव्य जीवोंसे वंदित एवं संसारके नाशक हैं उनकी मैं कुरवक और केतकी पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१८॥ जो मल्लि नामक जिनेन्द्र यहाँ तीन लोकके स्वामियोंके-इन्द्र, धरणेन्द्र एवं चक्रवर्तियोंके- अधिपति हैं उनकी मैं कुटज पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१९॥ जो सुव्रत जिनेन्द्र गुणोंके भण्डार होकर यम, नियम व उत्तम व्रतोंसे सहित तथा संसारका नाश करनेवाले हैं उनकी मैं सुन्दर मुचकुन्द पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥२०॥ जो उत्तम नामवाले नमि जिनेन्द्र संसाररूप समुद्रसे पार होनेके लिए नावके समान होकर उक्त संसारका नाश करनेवाले हैं उन नमि जिनेन्द्रकी मैं निर्मल कुन्द पुप्पोंके द्वारा पूजा करता हूँ ॥२१॥ मैं कमलपुष्पोंके द्वारा उन नेमिनाथ जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ जो कि चन्द्रकी किरणोंके समूहके समान निर्मल कीर्तिके देनेवाले, पवित्र और संसारके नाशक हैं ॥२२॥ जो उत्कृष्ट पार्श्व नामक जिनेन्द्र १ प श विबुद्धचित्त । २. श भुवनकीर्तिकीतिकं । ३. फ विचिकिल०। ४. फ कुरवकर्यजे। ५. श पुष्पकर्जजे । ६. प जमनियमसूव्रतम, फ वरविनेयसूक्तम् । ७.फ विमलगोज्जकै । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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