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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् ३०६ [ ६-८, ४९ : समवसृति जगाम जिनदर्शनेन गलितमोहस्तं समय॑ स्वकोष्ठे उपविष्टः । ___ तदा विभीषणो रामादीनामतीतभवानपृच्छत्, लवाङ्कशयोः पुण्यातिशयहेतुमप्राक्षोत् । केवली कथितवांस्तावत् लवाङ्कशयोर्भवान् । तथाहि-अत्रैवार्यखण्डे काकन्यां राजारतिवर्धनसुदर्शनयोरपत्ये प्रीतिंकर-हितकरौ जातौ । राजपुरोहितः सर्वगुप्तः, भार्या विजयावली । स एकदा राज्ञा धृत्वा निगले निक्षिप्तः । विज्ञापननिमित्तमागतया विजयावल्या राजरूपं दृष्ट्वोक्तम् 'मामिच्छ'।तेनोक्तम् 'भगिनी त्वम्'। मनसि कुपिता गता। कतिपयदिनेषु सर्वगुप्तं मुक्त्वा तस्मै पूर्व पदं दत्तम् । तया कथितम् 'मे शोलं खण्डयितुं लग्नो राजा' इति । ततोऽपकारद्वयमवधार्य सर्वे आत्मनि मेलयित्वा रात्रौ राजभवने वेष्टिते त्रयोऽपि मध्येऽन्तःपुरं कृत्वा खड्गबलेन निर्गताः, काशिपुराधिपकाशिपुना संगृहोताः। कियत्काले गते तेन प्रेषितबलेन सह स्वपुरमागत्य युद्धे तं बन्धयित्वा स्वीकृतं राज्यं रतिवर्धनेन । प्रजापालनं विधाय त्रिभिरपि तपो गृहीतम् । पुत्रौ दुर्धरानुष्ठानेनोपरिग्रैवेयकं गतौ, तस्मादागत्य शाल्मलीपुरे विपरामदेवस्याउसे लौटानेके लिए परिवारके साथ समवसरणमें गये । परन्तु सकलभूषण जिनके दर्शनमात्रसे उनका वह सीताविषयक मोह दूर हो गया और तब वे जिन देवकी पूजा करके अपने कोठेमें बैठ गये । उस समय विभीषणने केवली जिनसे रामादिकोंके पूर्व भवों तथा लव और अंकुशके पुण्यातिशयके कारणको पूछा । तदनुसार केवलीने प्रथमतः लव और अंकुशके पुण्यातिशयका कारण इस प्रकार बतलाया- इसी आर्यखण्डके भीतर काकन्दी नगरीमें राजा रतिवर्धन और रानी सुदर्शनाके प्रीतिकर और हितंकर नामके दो पुत्र थे। उक्त राजाके पुरोहितका नाम सर्वगुप्त और उसकी पत्नीका नाम विजयावली था । एक समय राजाने उस पुरोहितको पकड़वा कर बन्धनमें डाल दिया । तब राजासे प्रार्थना करने के लिए पुरोहितकी पत्नी विजयावली उसके पास आयी । परन्तु वह राजाकी सुन्दरताको देखकर मुग्ध होती हुई उससे बोली कि मुझे स्वीकार करो। यह सुनकर राजाने कहा कि तुम मेरी बहिन हो, तुम्हें मैं कैसे स्वीकार करूँ ? इसपर वह मनमें क्रोधित होकर वापस चली गई। कुछ दिनोंके पश्चात् राजाने सर्वगुप्तको छोड़कर उसके लिये पहिलेका पद दे दिया। तब विजयावलीने पतिसे कहा कि राजा उस समय मेरा शील भंग करनेको उद्यत हो गया था। यह सुनकर पुरोहितने विचार किया कि राजाने प्रथम तो मुझे बन्धनमें डाला और फिर पत्नीके शीलको भंग करना चाहा, इस प्रकार इसने दो अपराध किये हैं। यह सोचकर उसने सबको अपनी ओर मिलाकर उनकी सहायतासे रातमें राजभवनको घेर लिया। तब राजा और उसके दोनों पुत्र ये तीनों बीचमें अन्तःपुरको करके तलवारके बलसे बाहर निकल गये । तब उनका काशिपुरके राजा काशिपुने स्वागत किया। तत्पश्चात् कुछ कालके वीत जानेपर राजा काशिपुरके द्वारा भेजे गये सैन्यके साथ अपने नगरमें आकर रतिवर्धनने युद्धमें उस सर्वगुप्त पुरोहितको बाँध लिया और अपने राज्यको वापस प्राप्त कर लिया। फिर वह कुछ समय तक राज्य करके दोनों पुत्रोंके साथ दीक्षित हो गया। उनमेंसे दोनों पुत्र दुर्धर तप करके उपरिम गैवेयकमें गये । वहाँसे च्युत होकर वे दोनों शाल्मलीपुरमें ब्राह्मण रामदेवके वसुदेव १. व स्तमभ्यर्च्य । २. ब निगलो । ३. प श का शिपुराधिपं । ४. ज प कासिपुना सब काशिपुनामं सं°। ५. बनोपरित[म]z। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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