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________________ ३०४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-८, ४९ : तद्भवविरोधवशेन जन्मान्तरविरोधवशेन वा हतावित्युक्ते जन्मान्तरविरोधवशेनेत्याह । तथाहि- अत्रैव भरते कुशस्थलग्रामे भ्रातरौ मूर्खविप्रो इन्धक-पल्लवनामानी जाती। जैनसंसर्गात् मुनिकृताहारदानौ अपरभ्रातृकुटुम्बियुगलेन सह कृतारम्भौ सिद्धादायदाने झकटके ताभ्यां मारितौ मध्यमभोगभूमौ जातौ। ततः स्वर्गे जातो, तस्मादागत्य नल-नीलो जाती। इतरौ कालारारण्ये शशावित्यादि, परिभ्रम्य तापसत्वेन ज्योतिर्लोके उत्पद्य तस्मादागत्य विजयार्धदक्षिणश्रेण्यामग्निकुमाराश्चिन्योर्हस्त-प्रहस्तौ जाताविति सम्यक्त्वविवर्जितौ मूर्खा. वप्युभयगतिसुखमनुभूय सकृन्मुनिदानफलेन चरमदेहिनौ महाविभूतियुक्तौ वभवतुः, सदृष्टयो दानपतयः किं तथाविधा न स्युरिति ॥ ७॥ [ ४९ ] विप्रो यो दत्तदानौ शममरकुजजं देवं च पृथु तत् संजातौ चारुकीर्ती जितसकलरिपू वीरौं सुविदितौ । सेवित्वा रामपुत्रौ तदनु लव-कुशौ बुद्धाखिलमतौ तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥ ८ ॥ अथवा जन्मान्तरके विरोधसे, इन प्रश्नके उत्तरमें यहाँ जन्मान्तर विरोधको कारण बतलाया है जो इस प्रकार है- इसी भरतक्षेत्रके भीतर कुशस्थल ग्राममें इन्धक और पल्लव नामके दो मूर्ख ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उन दोनोंने किसी जैनके संसर्गसे मुनिके लिए आहार दान दिया था। वहींपर दो अन्य भी कृषक बन्धु थे। उनके साथ इन्धक और पल्लवने खेतीका आरम्भ किया। उसमें राजाके लिये कर (टैक्स ) देनेके विषयमें परस्पर झगड़ा हो गया, जिसमें उन दोनों कुटुम्बी भाइयोंने इन दोनोंको ( इन्धक-पल्लको) मार डाला। इस प्रकारसे मरकर वे मुनिदानके प्रभावसे मध्यम भोगभूमिमें उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् वे स्वर्ग गये और फिर वहाँसे आकर नल और नील उत्पन्न हुए। उधर वे दोनों कृषक भाई कालंजर वनमें खरगोश आदिके भवोंमें परिभ्रमण करते हुए तापस होकर ज्योतिर्लोकमें उत्पन्न हुए और फिर वहाँ से च्युत होकर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें अग्निकुमार और अश्विनीके हस्त व प्रहस्त नामके पुत्र हुए। इस प्रकार सम्यक्त्वसे रहित और मूर्ख भी वे दोनों ब्राह्मण एक बार मुनिदानके प्रभावसे दोनों गतियोंके सुखको भोगकर महाविभूतिसे संयुक्त चरमशरीरी होते हुए जब मुक्तिको प्राप्त हुए हैं तब क्या उस मुनिदानके प्रभावसे सम्यग्दृष्टि जीव वैसी विभूतिसे संयुक्त न होंगे ? अवश्य होंगे ॥ ७ ॥ जिन दो ब्राह्मणोंने मुनिके लिए दान दिया था वे भोगभूमिमें कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न सुखको तथा देवगतिके विपुल सुखको भोगकर तत्पश्चात् लब व कुश नामसे प्रसिद्ध रामचन्द्रके दो वीर पुत्र हुए। समस्त शत्रुओंको जीत लेनेके कारण उनकी पृथिवीपर निर्मल कीर्ति फैली । इसीलिए निर्मल गुणों के समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको निरन्तर उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिये ॥८॥ १. ब हताविद्युक्ते । २. शश्विन्यौहस्तः । ३. फ पृथु तं । ४. फ ब कीत्तिजित। ५. फ 'रिपुर्वीरौ । ६. श बुध्वाखिलमतो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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