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________________ : ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २ २७३ दुन्दुभि-पुष्पवृष्टि चामर-प्रभावलय-भाषाशोकाख्याष्टभिः प्रातिहाथैर्युतो बभूव । देवाः समागत्य समय॑ यथास्वमुपविष्टाः। तत्पुरेशवृषभसेनो विभूत्यागत्य संसारभूधरवज्रपातं समभ्यर्च्य स्तुत्वा स्वतनयानन्तसेनाय राज्यं दत्त्वा प्रव्रज्य प्रथमगणधरोऽभूत्।। __इतोऽयोध्यायां सामन्तादिवृतो भरत आस्थाने आसितस्त्रिभिः पुरुषैरागत्य विज्ञप्तः 'अनन्तसुन्दरी देवी पुत्रं प्रसूता, आयुधागारे चक्रं समुत्पन्नम् , अादिदेवो ज्ञानातिशयं प्राप्तः' इति । तत्र संतानवृद्धी राज्याभिवृद्धिश्च धर्मजनितेति विचार्य पुरन्दरलीलया वन्दितुं गतः, त्रिलोकेश्वरचूडामणि-विचित्ररत्नरश्मिविधृतेन्द्रचापश्री-श्रीपादद्वयमभ्यर्च्य स्तुत्वा गणधरादीनभिवन्द्य स्वकोष्ठे उपविष्टः। सोमप्रभ-श्रेयांसौ जयाय राज्यं दत्वा भरतानुजोऽनन्तवीर्योऽपि प्रव्रज्य गणधरा बभूवुः । ब्राह्मी-सुन्दर्यो कुमार्यावेव बहुनारीभिर्दीक्षिते आर्याणां मुख्ये जाते। भरतराजो दिव्यध्वनिश्रवणामृतरसास्वादसंतुष्ट आगत्य पुत्रजातकर्म चक्रपूजां च कृतवान् , सुमुहूर्ते विजयप्रयाणभेरोनादपूरिताखिलाशावदनः षडङ्गबलपदधातोत्थधूलीपटलप्रगट हुए थे। इसके अतिरिक्त वे भगवान् सिंहासन, तीन छत्र, दुन्दुभी, पुष्पवृष्टि, चामर, भामण्डल, दिव्यध्वनि और अशोक वृक्ष; इन आठ प्रातिहार्योंसे सहित हुए थे। उस समय सब प्रकारके देव आये और भगवान् की पूजा करके यथायोग्य स्थानपर बैठ गये । उस समय उस पुर (पुरिमतालपुर ) का स्वामी वृषभसेन विभूतिके साथ भगवान् वृषभदेवके समवसरणमें आया । उसने वहाँ संसाररूप पर्वतको नष्ट करने के लिये वज्रपातके समान उन जिनेन्द्रकी पूजा व स्तुति करके अपने अनन्तसेन नामक पुत्रके लिये राज्य दे दिया और स्वयं दीक्षा ले ली। वह आदिनाथ जिनेन्द्रका प्रथम गणधर हुआ। इधर भरत अयोध्यापुरी में सामन्त आदिसे वेष्टित होकर सभाभवनमें बैठा हुआ था। उस समय तीन पुरुषोंने आकर महाराज भरतके लिये क्रमशः 'अनन्त सुन्दरी रानीके पुत्र उत्पन्न हुआ है, आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, तथा आदिनाथ भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है' ये तीन शुभ समाचार सुनाये । इसपर भरतने विचार किया कि सन्तानकी वृद्धि और राज्यकी वृद्धि धर्मके प्रभावसे हुई है। इसीलिये वह सर्वप्रथम इन्द्रके समान ठाट-वाटसे जिनेन्द्रकी वंदना करने के लिये गया। उसने समवसरणमें जाकर तीनों लोकोंके स्वामियोंके-इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तीके- चूड़ामणिके समान तथा अनेक प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे इन्द्रधनुषकी शोभाको उत्पन्न करनेवाले श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के चरणोंकी पूजा और स्तुति की। फिर वह गणधरादिकोंकी वन्दना करके अपने कोठेमें बैठ गया। राजा सोमप्रभ और श्रेयांस जयके लिये राज्य देकर दीक्षित हो गये। भरतके छोटे भाई अनन्तवीर्यने भी जिनदीक्षा ले ली । ये तीनों भी भगवान् आदिनाथके गणधर हुए। ब्राह्मी और सुन्दरी नामकी दोनों पुत्रियाँ भी कुमारी अवस्थामें ही अन्य बहुत-सी स्त्रियों के साथ दीक्षित हो गयीं । वे दोनों आर्यिकाओंमें प्रमुख हुई। महाराज भरत दिव्यध्वनिके सुननेरूप अमृत-रसके आस्वादनसे सन्तुष्ट होकर अयोध्या में वापिस आये । उस समय उन्होंने पुत्रजन्मका उत्सव मनाते हुए चक्ररत्नकी पूजा भी की। तत्पश्चात् उन्होंने शुभ मुहूर्तमें दिग्विजयके लिये प्रयाण करते हुए जो भेरीका शब्द कराया उससे १. फ स्वकोष्ठके । २. फ ब गणधरो। ३. श कुमारायवेव । www.jainelibrary.org Jain Education Inational For Private & Personal Use Only
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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