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________________ २७२ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : दन्तर्मार्ग 'मानस्तम्भोऽस्थात् । द्वितीय-तृतीयगोपुराभ्यां अन्तर्मार्गे खं स्थितम् । चतुर्थगोपुरादन्तर्मार्गस्य पार्श्वयोर्नृत्यशाले धूपघटाभ्यां युते स्थिते । ततः खम्, ततो यथोक्ते शाले, ततः स्तूपा नव, ततः खमिति । चतुर्दिशास्ववं ज्ञातव्यमन्यत्सर्वं समवसरणग्रन्थे बोद्धव्यमिति । परमेश्वरस्य चक्रेश्वरी यक्षी गोमुखो यक्षो बभूच | गव्यूतिशतचतुष्टय सुभिक्षता गगनगमनमप्राणिवधता भुक्त्यभावता उपसर्गाभावता चतुरास्यता सर्वविद्येश्वरता अच्छायता' अपच्मकम्पता समप्रसिद्धनखकेशताश्चेति दशघातिक्षयजा अतिशयाः । सर्वार्धमागधीभाषा सर्वजनमैत्री सर्वर्तुकफलदाङघियुता समा मही तथा रत्नमयी च विहारानुकूलो मारुतः मरुत्कुमाराणां धूल्याद्युपशान्तिनयनं तडित्कुमाराणां गन्धोदकवर्षणं पुरः पृष्टतश्च पादन्यासे सप्तसप्तकमलकरणं पृथिव्या हर्षः जनमोदनं गगननिर्मलता सुराणां परम्पराह्नानं धर्मचक्रम् अष्टमङ्गलानीति चतुर्दश देवोपनीता अतिशयाः । देहजा दश, घातिक्षयजा दश, देवोपनीता चतुर्दश इति चतुस्त्रिंशदतिशयाः । सिंहासन छत्रत्रय गोपुरद्वारके आगे मार्गके मध्य में मानस्तम्भ स्थित था। दूसरे और तीसरे गोपुरद्वारोंके आगे मार्ग के मध्य में केवल आकाश स्थित था- वहाँ अन्य कुछ नहीं था । चतुर्थ गोपुरद्वारके आगे मार्गके मध्य में दोनों ओर दो दो धूपघटोंसे संयुक्त दो नृत्यशालाएँ थीं । उनके आगे आकाश, उससे आगे पूर्वोक्त शालोंके समान दो शाल (कोट), आगे नौ स्तूप और फिर आगे केवल आकाश था । यह क्रम चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में जानना चाहिये । अन्य सब वर्णन समवसरणग्रन्थसे जानना चाहिये । भगवान् आदिनाथ के चक्रेश्वरी यक्षी और गोमुख नामका यक्ष था । १ चार सौ कोशके भीतर सुभिक्षता, २ आकाश में गमन ३ प्राणिहिंसाका अभाव, ४ भोजनका अभाव, ५ उपसर्गका अभाव, ६ चार मुखोंका होना, ७ समस्त विद्याओंका आधिपत्य, ८ शरीर की छाया का अभाव, पलकों का न झपकना और १० नख व केशों का समान रहना - उनकी वृद्धि न होना; ये दश अतिशय तीर्थंकर केवलीके घातिया कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होते हैं । १ सर्व अर्धमागधी भाषा, २ सब जनों में मित्रभाव, ३ वृक्षोंका सब ऋतुओं के फलफूलों से संयुक्त हो जाना, ४ पृथिवीका सम व रत्नमय होना, ५ विहारके अनुकूल वायुका संचार, ६ वायुकुमार देवों के द्वारा धूलि और कण्टक आदिका दूर करना, ७ विद्युत्कुमार देवोंके द्वारा गन्धोदकी वर्षा करना, ८ पादनिक्षेप करते समय आगे पीछे सात सात कमलोंका निर्माण करना, पृथिवीका हर्षित होना, १० जनोंका हर्षित होना, ११ आकाशका निर्मल हो जाना, १२ देवोंका एक दूसरेका बुलाना, १३ धर्मचक्र और १४ आठ मंगल द्रव्य; ये चौदह तीर्थंकर केवली के देवोपनीत अतिशय प्रगट होते हैं । इस प्रकार भगवान् आदिनाथके उस समय दस शारीरिक, दस घातिया कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुए और चौदह देवोपनीत; ऐसे चौंतीस अतिशय १. प श अतोऽग्रे 'मानस्तम्भोऽस्यात् द्वितीयतृतीयगोपुराभ्यां अन्तर्मार्ग' इत्येतावानयं पाठः पुनरपि लिखतोऽस्ति । २. श यक्षा । ३. ब गमनताऽप्राणिवधता शगमनाप्राणिवधता । ४. ब अछायता श आछायता । ५. श सर्वार्थअर्द्ध । ६. धूल धूप । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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