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________________ पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : पटलितादित्यमण्डलो गत्वा गङ्गातीरे निवेशित शिबिरः स्थितः । स तत्तीरेण गत्वा गङ्गासागर संगमे श्रवासितः । ततः समुद्राभ्यन्तरावासिमागधद्वीपाधिप- मागधामरसाधनोपायः क इति सचिन्तो यावदास्ते तावत्पश्चिमरात्रियामे स्वप्नं दृष्टवान् । कथम् । रथमारुह्य सागरं प्रविशन् द्वादशयोजनानि गत्वा रथः स्थास्यति, ततस्तदावासं प्रति वाणं विसर्जयेति । प्रातस्तथा कृते स शरं नामाङ्कितमवलोक्य कृताक्षेपः मन्त्रिभिरुपशान्ति नीतः उपायनपुरस्वरमागत्य चक्रिणं दृष्टवान् । तेनापि भृत्यत्वं संग्राह्य प्रेषितः । ततो लवणोदध्युपसमुद्रयोमध्यस्थितोपवनेन पश्चिमं गत्वा वैजयन्तगोपुरं प्रविश्य वरतनुद्वीपाधिपं वरतनुं तथैव साधयित्वा ततः पश्चिमं गत्वा सिन्धुसागर संगमे विमुच्य प्रभासद्वोपाधिपं प्रभासं तथा साधयित्वा ततः सिन्धुतटीमाश्रित्योत्तरं गत्वा विजयार्धस्यानतिदूरे विमुच्य स्थितश्चक्री । कृतकमालविजयार्थी साधयित्वा सेनापतिः स्वबलं पश्चिमम्लेच्छखण्डं प्रतिस्थाप्य स्वयमश्वरत्नमारुह्य पश्चिमाभिमुखं कृत्वा दण्डरत्नेन तमिस्रगुहाद्वारमाताज्य कशयाश्वं प्रताडय पश्चिमम्लेच्छखण्डं गतः । इत उद्घाटिते द्वारे ततो महोप्माणो निर्गताः षण्मासैरुपशान्ति गताः । तदनु २७४ संमस्त दिङ्मण्डल शब्दायमान हो उठा। तब गमन करती हुई छह प्रकारकी सेनाके पाँवोंके घातसे जो धूलिका पटल उठा था उससे सूर्यमण्डल भी ढक गया था। इस प्रकारसे गमन करते हुए उन भरत महाराजका कटक गंगा नदीके किनारे ठहर गया । पश्चात् वे उस गंगा के किनारे से गये व जहाँ वह समुद्र में गिरती है वहाँ पहुँचकर स्थित हो गये । वहाँपर उन्हें समुद्र के भीतर अवस्थित मागध द्वीपके स्वामी मागघ देवके जीतने की चिन्ता उत्पन्न हुई । वे इसके लिये कुछ उपाय खोज रहे थे । इस बीच रात्रिके पिछले पहर में उन्होंने स्वप्न में देखा कि कोई उनसे कह रहा है कि रथपर चढ़कर समुद्र के भीतर प्रवेश करो, वहाँ बारह योजन जानेपर रथ ठहर जावेगा, तब वहाँसे उस मागघ देवके निवासस्थानकी ओर बाणको छोड़ो। फिर प्रातः काल होने पर महाराज भरत पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार रथमें बैठकर बारह योजन समुद्र के भीतर गये और जहाँ वह अवस्थित हुआ वहींसे उन्होंने बाण छोड़ दिया । उस नामांकित बाणको देखकर मागध देवने क्रोधावेश में महाराज भरतकी निन्दा की । परन्तु मन्त्रियोंने समझा-बुझाकर उसे शान्त कर दिया । तब वह भेंट के साथ आकर चक्रवर्ती से मिला । चक्रवर्ती भरतने भी उसे सेवक बनाकर अपने स्थानको वापिस भेज दिया । तत्पश्चात् भरत चक्रवर्ती लवणसमुद्र और उपसमुद्रके मध्य में स्थित उपवनके सहारे पश्चिम की ओर जाकर वैजयन्त गोपुरद्वार के भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ से उन्होंने मागध देवके समान वरतनु द्वीपके स्वामी वरतनु देवको वश में किया । फिर वे पश्चिम की ओर जाकर सिन्धु नदी और समुद्रके संगमपर पड़ाव डालकर स्थित हुए । यहाँ से उन्होंने प्रभास द्वीपके स्वामी प्रभास देवको भी उसी प्रकारसे सिद्ध किया । तत्पश्चात् वे' सिन्धु नदीके सहारे चलकर उत्तरकी ओर गये और विजयार्धके पास पड़ाव डालकर स्थित हुए । उधर सेनापतिने कृतकमाल और विजयार्ध इन दो देवोंको जीतकर अपनी सेनाको पश्चिम म्लेच्छखण्डकी ओर भेजा और स्वयंने अश्वरत्नपर चढ़कर व उसके मुखको पश्चिमकी ओर करके दण्डर से तमिस्रगुफा के द्वारको ताड़ित किया । तत्पश्चात् वह शीघ्रतापूर्वक लगामसे घोड़े को ताड़ित कर पश्चिम म्लेच्छखण्डकी ओर चल दिया। इधर द्वारके खुल जानेपर उससे निकली हुई १. ज आवसितः | २. शनीताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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