SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ पुण्यानवकथाकोशम् [६-२, ४३ : त्वदीयो वंश इक्ष्वाकुवंशो भवत्विति । तथा भवत्विति स्वाम्यभ्युपजगाम । स सुवर्णवर्णो वृषभध्वजलाञ्छितः पञ्चशतदण्डोन्नतश्चतुरशीति लक्षपूर्वायर्यावत् सुखमास्ते तावत्तद्यौवनामभिवीय शकादिभिर्विशनो देव, स्वस्य विवाहोऽभ्युपगन्तव्यः। स्वामी चारित्रमोहोदयेनाभ्यपजगाम । ततः कच्छ-महाकच्छतनुजाभ्यां यशस्वती-सुनन्दाभ्यां विवाहं स्थापितः । ततस्ताभ्यां सुखेन तस्थौ । यो निधिरक्षको व्याघ्रो दिवाकरप्रभदेवो मतिवरोऽधोग्रैवेयकजो बाहुः सर्वार्थसिद्धिजः स प्रागत्य यशस्वत्या भरतनामा पुत्रो जातः । मन्त्री आर्यः कनकप्रभदेवः मानन्दो प्रैवेयकजः पोठः सर्वार्थसिद्धिजो भरतानुजो वृषभसेनोऽभूत् । यः पुरोहित आयः प्रभञ्जनदेवो धनमित्रोऽधोवेयकजः महापोठः सर्वार्थसिद्धिजो वृषभसेनानुजोऽनन्तवीर्योsजनि । यो व्याघ्रो भोगभूमिजश्चित्राङ्गददेवो वरदत्तोऽच्युत कल्पजो विजयः सर्वार्थसिद्धिज सोऽपि भरतानुजोऽनन्तोऽभूत् । यो वराह आर्यो मणिकुण्डलदेवो वरसेनोऽच्युतस्वर्गजो वैजयन्तः सर्वार्थसिद्धिजः सोऽपि भरतानुजोऽच्युतोऽजनि । यो मर्कटचरार्यो मनोहरदेवश्चित्राङ्गदोऽच्युतस्वर्गजो जयन्तः सर्वार्थसिद्धिजः सोऽपि तदनुजो वीरो बभूव । यो नकुलार्यो मनोरथदेवः शान्तमदनाच्युतकल्पजोऽपराजितः सर्वार्थसिद्धिजः सोऽपि तदनुजः सुवीरों 'इक्ष्वाकु' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध हो । इस बातको भगवान्ने 'तथा भवतु' कहकर स्वीकार कर लिया । भगवान्का वर्ण सुवर्ण जैसा था। उनका चिह्न बैलका था। वे पाँच सौ धनुष ऊँचे और चौरासी लाख वर्ष पूर्व प्रमाण आयुके धारक थे। इस प्रकार वे भगवान् सुखपूर्वक स्थित थे । इस बीचमें उनकी यौवन अवस्थाको देखकर इन्द्रादिकोंने प्रार्थना की कि हे देव ! अपना विवाह स्वीकार कोजिये । इसपर भगवान्ने चारित्रमोहके वशीभूत होकर उसे स्वीकार कर लिया। तब कच्छ और महाकच्छ राजाओंकी यशस्वती और सुनन्दा नामकी पुत्रियोंके साथ उनका विवाह करा दिया। वे उन दोनोंके साथ सुखसे काल व्यतीत करने लगे। खजानेका रक्षक जो अतिगृद्ध राजाका जीव व्याघ्र हुआ और फिर क्रमशः दिवाकरप्रभ देव, मतिवर मन्त्री, अधोग्रैवेयकका अहमिन्द्र, बाहु ( वज्रनाभिका अनुज ) व सर्वार्थसिद्ध में अहमिन्द्र हुआ था वह आकर यशस्वतीके भरत नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा प्रीतिवर्धनके मन्त्रीका जीव जो क्रमसे आर्य ( भोगभूमिज ), कनकप्रभ देव, आनन्द पुरोहित, ग्रैवेयकका अहमिन्द्र, पीठ और फिर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ था वह भरतका लघुभ्राता वृषभसेन हुआ । जो पुरोहितका जीव आर्य, प्रभंजन देव, धनमित्र, अधोग्रैवेयकका अहमिन्द्र, महापीठ और सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह वृषभसेनका लघुभ्राता अनन्तवीर्य हुआ। जो व्याघ्रका जीव भोगभूमिज, चित्रांगद देव, वरदत्त, अच्युत कल्पका देव, विजय और सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह भी भरतका लघुभ्राता अनन्त हुआ। जो शूकरका जीव आर्य, मणिकुण्डल देव, वरसेन, अच्युत कल्पका देव, वैजयन्त और सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ था वह भी भरतका लघुभ्राता अच्युत हुआ। जो बन्दरका जीव आर्य, मनोहर देव, चित्रांगद, अच्युत स्वर्गका देव, जयन्त और सर्वासिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह भी उसका लघुभ्राता वीर हुआ। जो नेवलाका जीव भोगभूमिमें आर्य, मनोरथ देव, शान्तमदन, अच्युत कल्पमें देव, अपराजितका देव और अन्तमें सर्वार्थसिद्धिका १. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श तावत्तद्योवन । २. ब मवीक्ष्य । ३. ब अतोऽग्रेऽग्रिम 'सोऽपि तदनुजः' पर्यन्त: पाठ. स्खलितोऽस्ति । ४. श कल्पयोऽपराजितः । ५. श वीरो ब सुवरो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy