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________________ ६–२, ४३] ६. दानफलम् २ २६५ शुश्रूषया सुखेन नवमासावसाने चैत्रकृष्णनवम्यां त्रिलोकगुरुमसूत मरुदेवो' । तदैव सौधर्मादयः स्ववाहनाधिरूढाः समागुः, तदम्बिकाग्रे मायाशिशुं कृत्वा तं कुमारं सुराद्रौ - मेरो पाण्डुकवने ईशान कोणस्थपाण्डुकशिलायां निन्युः । तं तत्रोपवेश्याष्ट्रयोजनोत्सेधैरनेक कोटी घटैः सौधर्म - ईशानी क्षीराब्धिक्षीरेण जन्माभिषवं चक्रतुः । अनन्तरं विभूष्यानीय मातापित्रोः समयं तदग्रे शक्रो ननति (?) स्म । ततो वृषो धर्मस्तेन भातीति तं वृषभनामानं कृत्वा देवाः स्वर्लोकं जग्मुः । स वृषभनाथो निःस्वेदत्व-निर्मलत्व- शुभ्ररुधिरत्व-प्रथम संहननत्व-प्रथमसंस्थानत्व-सुरूपत्व-सुगन्धत्य--सुलक्षणत्वानन्तवीर्यत्व-प्रियहितवादित्वा स्य सहजदशातिशय तस्त्रिज्ञानधारी ववृधे । एकदा नाभिराजो ग्रासाभावादुपक्षीणशक्तिकाः प्रजा गृहीत्वागत्य तं नत्वा विज्ञप्तवान्हे नाथ, यथा प्रजानां ग्रासो भवति तथा कुर्विति । ततो देवः स्वयंभूतपुण्ड्रेक्षुदण्डान् यन्त्रेण निपीड्य रसपानोपायं कथितवान् । तथा कृते संतृप्ताभिः प्रजाभिरागत्य तस्य प्रणम्योक्तं देव, आकर गर्भकल्याणका महोत्सव किया । तत्पश्चात् वे वापिस स्वर्गलोक चले गये । मरुदेवी उन देवियों के द्वारा की जानेवाली सेवाके साथ नौ मास सुखपूर्वक रही । अन्तमें चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उसने तीन लोकके प्रभु भगवान् आदिनाथको उत्पन्न किया । इसको जानकर सौधर्म इन्द्र आदि अपने अपने वाहनों पर चढ़कर उसी समय अयोध्या नगरीमें आ पहुँचे। वे देवेन्द्र भगवान् की माताके आगे मायामयी बालकको करके तीर्थंकर कुमारकों मेरुपर्वतके ऊपर स्थित पाण्डुकवन के भीतर ईशान कोणस्थ पाण्डुक शिला के ऊपर ले गये । उसके ऊपर भगवान्को विराजमान करके सौधर्म और ईशान इन्द्र क्षीरसमुद्र के दूधसे आठ योजन ऊँचे अनेक करोड़ कलशों के द्वारा जन्माभिषेक किया। तत्पश्चात् तीर्थंकर कुमार को वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके सौधर्म इन्द्रने माता पिता को समर्पित किया और वह उनके आगे नृत्य करने लगा । वे भगवान् चूँकि वृष (धर्म) से शोभायमान थे, इसीलिये उनका नाम वृषभ रखकर वे सब देव स्वर्गलोकको चले गये। वे वृषभनाथ भगवान् निःस्वेदत्व ( पसीना न आना ), निर्मलता, शुभ्ररुधिरत्व (रक्तकी धवलता), वज्रर्षभनाराचसंहनन, समचतुरस्र संस्थान, सुरूपता ( अनुपम रूप ), सुगन्धित शरीर, सुलक्षणत्व ( एक हजार आठ उत्तम लक्षणों का धारण करना ), अनन्तवीर्यता ( शारीरिक बलकी असाधारणता ) और हित मित मधुर भाषण; इन स्वाभाविक दस अतिशयोंको जन्मसे ही धारण करते थे । साथ ही वे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों को भी जन्मसे ही धारण करते थे । वे क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुए । एक दिन भूख से व्याकुल दुर्बल प्रजाजन नाभिराजके पास आये। तब नाभिराज उन सबको लेकर भगवान् वृषभनाथके,पास पहुँचे । उनने नमस्कारपूर्वक भगवान् से प्रार्थना की कि हे नाथ ! जिस प्रकारसे प्रजाजनोंकी भूख आदिकी बाधा दूर हो, ऐसा कोई उपाय बतलाइये । तब वृषभदेवने उन्हें भूख की बाधाको नष्ट करने के लिए यह उपाय बतलाया कि गन्ना और ईखके दण्ड जो स्वयमेव उत्पन्न हुए हैं उनको कोल्हू में पेलकर रस निकालो और उसका पान करो । तदनुसार प्रवृत्ति करने पर प्रजाको बहुत सन्तोष हुआ । तब प्रजाजनोंने आकर प्रणाम करते हुए भगवान् से कहा कि आपका वंश १. शमरुदेवी । ९. फश मायामयी शिशुं । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श सुरेन्द्रः । ४. श तत्रोपविश्याष्ट। ५. ब शक्रे नर्नाति स्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only I www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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