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________________ ६–२, ४३ ] ६. दानफलम् २ जातः । इत्यादिभरतानुजा नवनवतिकुमारा जज्ञिरे । ततो ब्राह्मी कुमारी च । यः सेनापतिरार्यः प्रभाकर देवोऽकम्पनोऽधोग्रैवेयकजः सुबाहुः सर्वार्थसिद्धिः सोऽवतीय नन्दानन्दनो बाहुबली जज्ञे' । पूर्व वज्रजङ्घानुजा पुण्डरीकस्य माता सा उभयगति सुखमनुभूय बाहुबलनोऽनुजा सुन्दरी वभूव । एवमेकोत्तरशतपुत्रा द्वे पुत्र्यौ वृषभस्य जाते । एकदा पुत्र्यावुभयपार्श्वयोरुपवेश्यैकस्या दक्षिणपाणिना प्रकारादिवर्णान् श्रपरस्या वामहस्तेनैकं दहमित्याद्यङ्कांचं दर्शितवान् । भरतादीन् सर्वकलाकुशलान् कृत्वा सुखेनातिष्ठत् । पुनरेकदा नाभिराजः प्रजा गृहीत्वा विशप्तवान् -- देव, इक्षुरसपानेन बुभुक्षा न याति स्वामिन्नपरोपायं कथय । ततः स्वामी अष्टादशकोटी कोटी सागरोपमकालं नष्टं कर्मभूमिवर्तनां ग्रामादिरूपां क्षत्रियादिवर्णरूपां सस्यादिजीवनोपायरूपां दर्शितवांश्च । तदा 'स्वामिना क्रियते स्म' इति कृतयुगमुच्यते इति सकलसृष्टौ कृतायां विंशतिलक्षपूर्वकुमारकालेऽतिक्रान्ते शक्रादिभिः संभूयाषाढकृष्णप्रतिपदि तस्य राज्यपट्टो बद्धः । स च सोमप्रभास्य क्षत्रियकुमाराय राज्याभिषेक कृत्वा राज्यपट्टे बबन्ध ते वंशः कुरुवंशो भवत्विति हस्तिनापुरं ददौ । अकम्पदेव हुआ था वह भी भरतका लघुभ्राता सुवीर हुआ । इनको आदि लेकर निन्यानवे लघुभ्राता हुए। इसके पश्चात् भगवान् ऋषभदेवके ब्राह्मी नामकी पुत्री भी उत्पन्न हुई । जो सेनापतिका जीव भोगभूमिका आर्य, प्रभाकर देव, अकम्पन, अधोग्रैवेयकका देव, सुबाहु और फिर सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र हुआ था वह भी वहाँ से च्युत होकर नन्दा रानीका पुत्र बाहुबली उत्पन्न हुआ । पूर्वमें वज्रजंघकी छोटी बहिन जो पुण्डरीककी माता थी वह दोनों गतियों के सुखको भोगकर बाहुबलीकी सुन्दरी नामकी छोटी बहिन उत्पन्न हुई । इस प्रकार वृषभनाथ के एक सौ एक पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई । एक समय भगवान् वृषभदेवने उन दोनों पुत्रियों को अपने दोनों ओर बैठाकर उनमें से एक के लिए दाहिने हाथ से लिखकर अकारादि वर्णोंको तथा दूसरीके लिए बायें हाथ से लिखकर इकाई और दहाई आदि अंकोंको दिखलाया । साथ ही उन्होंने भरत आदि पुत्रों को भी समस्त कलाओं में निपुण कर दिया । इस प्रकार वे भगवान् सुखसे स्थित हुए । फिर किसी एक समय नाभिराज प्रजाको साथ लेकर भगवान् ऋषभदेव के पास आये । उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि हे देव ! केवल ईखके रससे भूखकी पीड़ा शान्त नहीं होती है। अतएव हे स्वामिन् ! उक्त पीड़ाको शान्त करनेके लिए दूसरा भी कोई उपाय बतलाइये । इसपर ऋषभदेवने जिस कर्मभूमि व्यवस्था के नष्ट होनेके पश्चात् अठारह कोड़ा कोड़ि सागरोपम काल बीत चुका था उसकी प्रवृत्तिको बतलाते हुए ग्राम-नगर आदिकी रचना; क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्णों की व्यवस्था, तथा जीवनके साधनभूत धान्य आदिकी उत्पत्तिका भी उपदेश दिया । उस समय ऋषभदेवने चूँकि युग (सृष्टि) की रचनाका उपदेश किया था, इसीलिए वे 'कृतयुग' अर्थात् युगके प्रवर्तक कहे जाते हैं । इस प्रकार समस्त सृष्टिकी रचना में उनका बीस लाख पूर्व प्रमाण कुमारकाल बीत चुका था । उस समय इन्द्रादिकोंने एकत्रित होकर आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा के दिन उन्हें राज्यपट्ट बाँधा था । तब उन्होंने सोमप्रभ नामक क्षत्रियकुमारके लिए राज्याभिषेक करके राज्यपट्टको बाँधा तथा 'तुम्हारा वंश कुरुवंश हो' यह कहते हुए उसे हस्तिनापुर दिया इसके साथ १. फश जज्ञिरे । २. श रूपवेश्येकस्या । ३. शमित्याद्यकं च । ४ ज अष्टादशकोटीसा । ५. श राज्यपदं । ६: ज प बबन्धः । ७. फ हस्तिनागपुरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only २६७ www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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