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________________ २६० पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : जनं प्रतिबोधितवान् हा-नीत्या शिक्षितवांश्च । अनन्तरं पल्योपमाशीत्येकभागे गते सन्मतिनामा द्वितीयः कुलकरोऽभूत् यशस्वतीपतिः, त्रिशताधिकसहस्रदण्डोत्सेधः, पल्यशतकभागायुः स्वर्णाभः निवारिततारकादिदर्शनजनितप्रजाभयः, तथैव शिक्षितवांश्च । ततः पल्याष्टशतैकभागे गते क्षेमंकरो जातः सुनन्दाप्रियः, अष्टशतदण्डोत्सेधः, पल्यसहस्रकभागायुः, निवारितव्यालजनितभयः, कनककान्तिः प्रवर्तितहा-नीतिश्च । अनन्तरं पल्याष्टसहस्रकभागे व्यतिक्रान्ते क्षेमंधरोऽजनि विमलाकान्तः, पञ्चसप्तत्यधिकसप्तशतधनुरुत्सेधः, पल्यदशसहस्रकभागायुः, कनकाभः, दीपादिप्रज्वालनेन निरस्तान्धकारः, तथैव निवारितप्रजादोषः । ततः पल्याशीतिसहस्रकभागेऽतीते सीमंकरोऽभूत् मनोहरीदेवीवल्लभः, सार्धसप्तशतशरासनोत्सेधः, पल्यलक्षकभागायुः, हिरण्यच्छविः, कृतकल्पद्रुममर्यादः, तथैव प्रवर्तितनीतिः । अनन्तरं देखनेसे आयोंके हृदयमें भयका संचार हुआ तब उनको भयभीत देखकर प्रतिश्रुति कुलकरने समझाया कि ये सूर्य-चन्द्र प्रतिदिन ही उदित होते हैं, परन्तु अभी तक ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके प्रकाशमें वे दीखते नहीं थे। अब चूँकि वे ज्योतिरंग कल्पवृक्ष प्रायः नष्ट हो चुके हैं, अतएव ये देखनेमें आने लगे हैं। इनसे डरनेका कोई कारण नहीं है । इस कुलकरने उन्हें 'हा' नीतिका अनुसरण कर शिक्षा ( दण्ड ) दी थी। इसके पश्चात् पल्यका अस्सीवाँ भाग (2) बीतनेपर सन्मति नामका दूसरा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी देवीका नाम यशस्वती था । उसके शरीरकी ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष, और आयु पल्यके सौवें भाग (0) प्रमाण और वर्ण सुवर्णके समान था । ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके सर्वथा नष्ट हो जानेपर जब आर्योंके लिए ताराओं आदिको देखकर भय उत्पन्न हुआ तब उनके उस भयको इस कुलकरने दूर किया था। प्रजाजनको इसने भी 'हा' इस नीतिका ही अनुसरण करके शिक्षा दी थी। इसके पश्चात् पल्यका आठ सौवाँ भाग (0) बीत जानेपर क्षेमंकर नामका तीसरा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम सुनन्दा था। उसके शरीरकी ऊँचाई आठ सौ धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके हजारवें भाग (क ) प्रमाण थी। इसके समयमें सादिकोंका स्वभाव कर हो गया था, अतएव प्रजाजन उनसे भयभीत होने लगे थे। क्षेमकरने संबोधित करके उनके इस भयको दूर किया था। इसने भी 'हा' इसी दण्डनीतिकी प्रवृत्ति चालू रक्खी थी। इसके पश्चात् पल्यका आठ हजारवाँ भाग (००) बीतनेपर क्षेमंधर नामका चौथा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम विमला था । उसके शरीरकी ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके दस हजारवें भाग ( ) प्रमाण थी । इसने प्रजाजनके लिए दीपक आदिको जलाकर अन्धकारके नष्ट करनेका उपदेश दिया था। प्रजाके दोषको दूर करनेके लिए इसने भी 'हा' इसी नीतिका आलम्बन लिया था। इसके पश्चात् पल्यका अम्सी हजारवाँ भाग (ट ) बीतनेपर सीमंकर नामका पाँचवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम मनोहरी था। उसके शरीरकी ऊँचाई साढ़े सात सौ धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके लाखवें भाग (क ) प्रमाण थी। इसने कल्पवृक्षोंकी मर्यादा करके प्रजाजनके कल्पवृक्षों सम्बन्धी विवादको दूर किया था। दण्डनीति इसके समयमें भी 'हा' यही चालू रही। १. ज श स्व नि' प स्वर्णाभणनि व सुभिः नि । २. व व्यालमृगजनितभयः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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