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________________ : ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २ २५९ एकपल्यायुः 'एकोनपञ्चाशदिनजनितयौवनः दिनान्तरितामलकप्रमाणाहारश्च भवति जनः । अन्यत्पूर्ववत् । द्वाचत्वारिंशत्सहस्रवयूँनैककोटीकोटीसागरोपमप्रमितश्चतुर्थकालो दुःषम सुषमनामा । तदादौ पञ्चशतचापोत्सेधः पूर्वकोटिरायुः प्रतिदिनभोजी पञ्चवर्णयुतश्च जनो भवति । एकविंशतिसहस्रवर्षप्रमितो दुःषमनामा पञ्चमकालः। तदादौ सप्तहस्तोत्सेधः विंशत्युत्तरशतवर्षायुः प्रतिदिनमनियतभोजी मिश्रवर्णश्च जनः स्यात् । ततोऽतिदुःषमनामा षष्ठः कालः तन्मान एव । तदा जना नग्ना मत्स्याद्याहारा धूमश्यामा द्विहस्तोत्सेधाः 'विंशतिवर्षायुषश्च स्युः। तदन्ते एककरोत्सेधः पञ्चदशाददायुश्च स्याजनः । यद् द्वितीयकालस्यादौ वर्तनं तत्प्रथमकालस्यान्ते । एवं यदुत्तरोत्तरकालादौ वर्तनं तत्पूर्वपूर्वस्यान्ते द्रष्टव्यम्। तत्र तृतीयकालस्यान्तिमपल्याष्टमभागेऽवशिष्टे कुलकराः स्युः चतुर्दश। तथाहिप्रतिश्रुतिनामा प्रथमकुलकरो जातः स्वयंप्रभादेवीपतिः, अष्टशताधिकसहस्त्रदण्डोत्सेधः, पल्यदशमभागायुः, कनकवर्णः। तत्काले ज्योतिरङ्गकल्पद्रुमभङ्गात् चन्द्रार्कदर्शनाद्भीतिं गतं समान होता है। आयु उस कालमें एक पल्योपम प्रमाण होती है। उस कालमें मनुष्य उनं. चास दिनोंमें यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं। आहार उनका एक दिन के अन्तरसे आँवलेके बराबर होता है। शेष वर्णन पूर्वके समान है । दुखमसुखमा नामका चौथा काल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है। उसके प्रारम्भमें मनुष्य पाँच सौ धनुष ऊँचे, एक पूर्वकोटि प्रमाण आयुके भोक्ता, प्रतिदिन भोजन करनेवाले और पाँचों वर्णोंवाले होते हैं । दुखमा नामक पाँचवें कालका प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है। उसके प्रारम्भमें मनुष्य सात हाथ ऊँचे, एक सौ बीस वर्ष प्रमाण आयु के भोक्ता, प्रतिदिन अनियमित ( अनेक बार ) भोजन करनेवाले और मिश्र वर्णसे सहित होते हैं। तत्पश्चात् अतिदुखमा नामका छठा काल प्रविष्ट होता है। उसका प्रमाण भी पाँच कालके समान इक्कीस हजार वर्ष है। उस समय मनुष्य नग्न रहकर मछली आदिकोंका आहार करनेवाले, धुएंके समान श्यामवर्ण, दो हाथ ऊँचे और बीस वर्ष प्रमाण आयुके भोक्ता होते हैं। इस कालके अन्तमें मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण और आयु पन्द्रह वर्ष प्रमाण रह जाती है। जो प्रवृत्ति-उत्सेध व आयु आदिका प्रमाणद्वितीय ( आगेके ) कालके प्रारम्भमें होता है वही प्रथम कालके अन्तमें होता है। इस प्रकारसे जो आगे-आगेके कालके प्रारम्भमें प्रवृत्ति होती है वहीं पूर्व पूर्व कालके अन्तमें होती है, यह जान लेना चाहिए। उनमेंसे तृतीय कालमें जब पल्यका अन्तिम आठवाँ भाग शेष रह जाता है तब चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं । वे इस प्रकारसे - सर्वप्रथम प्रतिश्रुति नामका पहिला कुलकर हुआ । उसकी देवीका नाम स्वयंप्रभा था। उसके शरीरकी ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष और आयु पल्यके दसवें भाग (2) प्रमाण थी। उसके शरीरका वर्ण सुवर्णके समान था। उसके समयमें ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेसे चन्द्र और सूर्य देखनेमें आने लगे थे। उनके १. ब एकोन्नपंचा। २. ज फ यौवनाः प यौवना। ३. फ हाराश्च भवंति जनाः। ४ ज प ब श दुःखमसुखम । ५. ज प ब श दुःखमः। ६. प श हस्तोत्सेधविश । ७. ज ब श दुःखमप दुखम । ८. श पंचविशति । ९. प फ यदुत्तरकालादौ श यदत्तरकादौ। १०. श 'प्रथम' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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