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________________ २५८ पुण्यानवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : सागरोपमप्रमितः । तत्कालादौ मनुष्याः षटसहस्रधनुरुत्सेधाः त्रिपल्योपमजीवनाः बालार्कनिभतेजसः पानकाङ्ग-तूर्याङ्ग-भूषणाङ्ग-ज्योतिरङ्ग-गृहाङ्ग-भाजनाङ्ग-दीपाङ्ग-माल्याङ्ग-भोजनाङ्गवस्त्राङ्गाश्चेति दशविधकल्पवृक्षफलोपभोगिनः त्रिदिनान्तरितबंदरप्रमाणाहाराः विगतभ्रातृभगिनीसंकल्पाः युग्मोत्पत्तिकाः परस्परं स्त्रीपुरुषभावजनितसांसारिकसौख्याः उत्पन्नदिनाद्यकविंशतिदिनजनितयौवनाः व्याधिजरेटवियोगानिष्टसंयोगादिक्लेशविवर्जिताः। स्त्रियो नवमासायुषि गर्भधारिण्यः प्रसूत्यनन्तरं जृम्भं कृत्वा त्यक्तशरीरभारा देवगतिं यान्ति, पुरुषाश्च तुतानन्तरं तथा दिवं गच्छन्ति । अनन्तरं सुषमो द्वितीयः कालः त्रिकोटीकोटयः सागरोपमप्रमितः । तदादौ चतुःसहस्रधनुरुच्छ्रितिः द्विपल्योपममायुः पूर्णेन्दु वर्णपञ्चविंशद्दिनजनितयौवनाः द्विदिनान्तरिताक्षप्रमाणाहाराश्च भवन्ति जनाः'। शेषं पूर्ववत् । अनन्तरं सुषमदुःषमो द्विकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणस्तृतीयः कालः। तदादौ द्विसहस्रदण्डोत्सेधः प्रियङ्गुश्यामवर्णः उसका प्रमाण चार कोड़ाकोड़ि सागरोपम है । इस कालके प्रारम्भमें मनुष्यों के शरीरकी ऊँचाई छह हजार धनुष ( तीन कोस ) और आयु तीन पल्योपम प्रमाण होती है। उनके शरीरकी कान्ति उदयको प्राप्त होते हुए नवीन सूर्यके समान होती है। वे पानकांग, तूर्यांग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, माल्यांग, भोजनांग और वस्त्रांग इन दस प्रकारके कल्पवृक्षोंके फलको भोगते हैं। वे तीन दिनके अन्तरसे बेरके बराबर आहारको ग्रहण किया करते हैं। युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले उनमें भाई-बहिनकी कल्पना न होकर पति-पत्नी जैसा व्यवहार होता है। जन्म-दिनसे लेकर इक्कीस दिनोंमें वे यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । उन्हें व्याधि, जरा, इष्टवियोग और अनिष्टसंयोगादिका क्रेश कभी नहीं होता है। वहाँ जब नौ महिना प्रमाण आयु शेष रह जाती है तब स्त्रियाँ गर्भको धारण करती और प्रसूतिके पश्चात् जंभाई लेकर शरीरको छोड़ती हुई देवगतिको प्राप्त होती हैं। पुरुष भी उसी समय छौंक लेकर मरणको प्राप्त होते हुए स्त्रियोंके ही समान स्वर्ग ( देवगति ) को प्राप्त होते हैं । तत्पश्चात् सुखमा नामका दूसरा काल प्रविष्ट होता है। उसका प्रमाण तीन कोड़ाकोडि सागरोपम है। उसके प्रारम्भमें शरीरकी ऊँचाई चार हजार धनुष ( दो कोस ) और आयु दो पल्योपम प्रमाण होती है। उस समयके नर-नारी पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान कान्तिवाले होते हैं । वे जन्म-दिनसे लेकर पैंतीस दिनों में यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं। उनका भोजन दो दिनके अन्तरसे बहेड़े के बराबर होता है। शेष वर्णन पूर्वोक्त सुखमसुखमाके समान है। इसके पश्चात् सुखमदुखमा नामका तीसरा काल प्रविष्ट होता है। इसका प्रमाण दो कोड़ाकोडि सागरोपम है । इसके प्रारम्भमें शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष ( एक कोस ) और वर्ण प्रियंगुके १. व-प्रतिपाठोऽयम् । शपमजिक्निा। २. ब गृहांगमाल्यांगभाजनांगभोजनांगदोपांगवस्त्रांगश्चेति । ३. वदरि। ४. ज प श वियोगाद्यनिष्ट । ६. ब जंभां । ६. ज प श सुखमो ब सुपुमो। ७. ब कोटीकोटिसागरोप। ८. ब धनुरुत्सृति । ९. ब वर्णः । १०. ब यौवन । ११. ब प्रमाणाहरश्च भवति जनः । १२. ब कोटी कोट्यसागरो । १३. फ दण्डोत्सेधाः । १४. फ वर्णाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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