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________________ : ६-२, ४३ ६. दानफलम् २ इदानों व्याघ्रवराहादीनां भवानाहात्रैव विषये हस्तिनापुरे वैश्यधनदत्तधनमत्योः सुत उग्रसेनश्वोरिकायां तलवरैर्हस्तपादप्रहारैर्हतः सन् क्रोधकषायेन मृत्वायं व्याघ्रोऽभवत् । अत्रैव विषये विजयपुरे वणिक्-आनन्दवसन्तसेनयोः सुतो हरिकान्तो महामानी कमपि न नमति । कैश्चित् धृत्वा मातापित्रोः पादयोः पातितोऽभिमानेन शिलायां स्वशिर हत्य मृतोऽयं वराहो जातः । अत्रैव विषये धान्यपुरे वणिक्-धनदत्तव सुदत्तयोः सूनुर्नागदत्तो मायावी स्वभगिन्या श्राभरणानि वेश्यानिमित्तं नीत्वानयामीत्युक्त्या स्थितो मृत्वायं वानरोऽजनि । अत्रैव विषये सुप्रतिष्ठपुरे कश्चित्पूरिकादिविक्रयी महालोभी वणिगभूत् । तेनैकदा राज्ञा कार्यमाणचैत्यालयनिमित्तं मृत्तिकाकृष्णीभूताः सुवर्णेटका नीयमानाः कस्मैचिद्वाहकाय पूरिका दत्त्वैकेष्टिका पादप्रक्षालनार्थ गृहीता । सुवर्णमयीं तां ज्ञात्वा प्रतिदिनं तद्धस्ते पूरिकाभिरेकैकां गृह्णाति । एकदा स्वतनयाय इष्टका ग्रहणं निरूप्य ग्रामान्तरं गतः । सापुत्रेण न गृहीता । स लोभी स्वगृहमाजगामेष्टिका न गृहीतेति पुत्रं यष्टिभिर्जघान स्वपादयोरुपरि शिलां चिक्षेप, मोटितौ पादौ । तद्वेदनया मृत्वायं नकुलो जातः । इमे भव्यता २५३ अब व्याघ्र और शूकर आदि के भव कहे जाते हैं - इसी देश के भीतर हस्तिनापुरमें वैश्य वह चोरीमें पकड़ा गया था । उसे कोवह क्रोधके वशीभूत होकर मरा और यह धनदत्त और धनमती के एक उग्रसेन नामका पुत्र था । वालोंने लातों और घूँसोंसे खूब मारा। इस प्रकारसे व्याघ्र हुआ है । इसी देशके भीतर विजयपुर में वैश्य आनन्द और वसन्तसेना के हरिकान्त नामका एक पुत्र था जो बड़ा अभिमानी था । वह किसीको नमस्कार नहीं करता था । कुछ लोगोंने पकड़कर उसे माता-पिता के चरणोंमें डाल दिया। तब उसने अभिमान से अपने शिरको पत्थर पर पटक लिया । इस प्रकारसे वह मरकर यह शूकर हुआ है । इसी देशके भीतर धान्यपुरमें वैश्य धनदत्त और वसुदत्ता के एक नागदत्त नामका पुत्र था, जो बहुत पी था । वह वेश्या के निमित्त अपनी बहिन के आभूषणों को ले गया था । जब वह उन्हें मांगती तो 'लाता हूँ' कहकर रह जाता । वह मरकर यह बन्दर हुआ है । इसी देश के भीतर सुप्रतिष्ठपुर में कोई पूरी आदिका बेचनेवाला वैश्य (हलवाई) रहता था । वह बहुत लोभी था । वहाँ राजा सुवर्णमय ईंटोंके द्वारा एक चैत्यालय बनवा रहा था ये ईंटे बाह्यमें मिट्टीके समान काली दिखती थीं, पर थीं वे सोनेकीं । एक दिन उन ईंटों को ले जाते हुए किसी मज़दूर को देखकर उक्त हलवाईने उसे पूरियाँ दीं और पाँव धोनेके निमित्त एक ईंट ले ली । फिर वह उसे सुवर्णकी जानकर उक्त मज़दूरके हाथमें प्रतिदिन पूरियाँ देता और एक एक ईंट मँगा लेता था। एक दिन वह अपने पुत्रसे ईंटको ले लेनेके लिये कहकर किसी दूसरे गाँवको गया था । परन्तु पुत्रने उस ईंटको नहीं लिया था। जब वह लोभी घर वापिस आया और उसे ज्ञात हुआ कि लड़के ने ईंट नहीं ली है तो इससे क्रोधित होकर उसने पुत्रको लाठियोंके द्वारा मार डाला तथा स्वयं अपने पाँवोंके ऊपर एक भारी पत्थरको पटक लिया । इससे उसके पाँव मुड़ गये । इस प्रकार वह बहुत कष्ट से मरा और यह नेवला हुआ है । ये चारों अपने भव्यत्व गुणके 1 १. ज ब वणिक्सानंद पवणिकराआनंद । २. ब पतितो । ३. ज नीत्वानेनयामी व नीत्वा न जामामी | ४. बभूता सुवर्णैका । ५. श केष्टिका ब कष्टका । ६. ब तदिष्टका । ७. ब° मेष्टका । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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