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________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : २. वशेनोपशान्ता जाताः । एतद्दानानुमोदेन त्वया सहोभयगति सौख्यमनुभूये त्वं यदा तीर्थकरो भविष्यसि तदै पुत्रा श्रनन्ताच्युतवीरसुवीराख्याश्चरमाङ्गा स्युरिति । आवां तवान्त्यपुत्रयुगलमित्यावयोरुपरि युवयोर्मोहो वर्तते इति निरूप्य गतौ मुनी । वज्रजङ्घः पुण्डरीकस्य राज्यं स्थिरीकृत्य स्वपुरे बहुकालं राज्यं कुर्वन् तस्थौ । एकस्यां रात्रौ शय्यागृहाधिकारी सूर्यकान्तधूपघटे कालागरुं निक्षिप्य गवाक्षमुद्घाटयितुं विस्मृतस्तद्धूमेन मम्रतुः श्रीमतीवज्रजङ्घौ मुनिदानफलेनात्रैवोत्तरकुरुषु दम्पती जाती । व्याघ्रादयोऽपि तहानानुमोदजनितपुण्येन तच्छय्यागृहे तेनैव धूमेन मृत्वा तत्रैवार्या जाताः । इतस्तच्छरीरसंस्कारं कृत्वा तत्सुतं वज्रबाहुं तत्पदे व्यवस्थाप्य मतिवरादयस्तपसाऽधोग्रैवेयके जाताः । इतो भोगभूमौ तौ दम्पती सूर्यप्रभाख्यकल्पामरदर्शनेन जातिस्मरौ जातौ । तदैव तत्र चारणावतीर्यौ । तौ नत्वा वज्रजङ्घार्यो बभाण - भवतोरुपरि किं मे मोहो वर्तते । तत्र प्रीतिंकरवारण आह - यदा त्वं महाबलो जातोऽसि तदा ते मन्त्री स्वयं बुद्धस्तपसा सौधर्मे जातः । ततः श्रागत्यात्रैव पूर्वविदेहे पुण्डरीकिणीशप्रिय सेनसुन्दर्योः प्रीतिकरोऽहं जातो मदनुजोऽयं प्रीतिदेवस्तपसा चारणाववधिवोधौ च भूत्वा त्वां २५४ प्रभावसे इस समय शान्तिको प्राप्त हुए हैं । इस आहार दानकी अनुमोदनासे ये चारों तुम्हारे साथ दोनों गतियों के सुखको भोगकर जब तुम तीर्थकर होओगे तब ये तुम्हारे अनन्त, अच्युत, वीर और सुवीर नामके चरमशरीरी पुत्र होवेंगे। हम दोनों चूँकि तुम्हारे अन्तिम पुत्रयुगल हैं, इसलिए हम दोनोंके ऊपर भी तुम दोनोंको मोह है । इस प्रकारसे उक्त वृत्तान्तको कहकर वे दोनों मुनि - राज चले गये । वज्रघ पुण्डरीक के राज्यको स्थिर करके अपने नगर में वापिस आ गया । उसने बहुत समय तक राज्य किया । एक दिन रातमें शयनागार की व्यवस्था करनेवाला सेवक सूर्यकान्त मणिमय धूपघट में कालागरुको डालकर खिड़कीको खोलना भूल गया । उसके धुएँसे उस शयनागारमें सोये हुए श्रीमती और वज्रजंघ मर गये । वे मुनिदान के प्रभावसे इसी जम्बूद्वीप के उत्तरकुरुमें आर्य दम्पती ( पति-पत्नी ) हुए। उधर वे व्याघ्र आदि भी उपर्युक्त शयनागार में उसी धुएँक द्वारा मरकर उस मुनिदानकी अनुमोदना करनेसे प्राप्त हुए पुण्यके प्रभावसे उसी उत्तरकुरुमें आर्य हुए। इधर मतिवर आदिने वज्रजंघ और श्रीमतीके शरीरका अग्नि-संस्कार करके वज्रजंधके पुत्र वज्रबाहुको राजाके पदपर प्रतिष्ठित किया । तत्पश्चात् वे जिनदीक्षा लेकर तपके प्रभावसे अधोग्रैवेयक में देव हुए। इधर भोगभूमिमें उस युगल ( वज्रजंघ और श्रीमती के जीव ) को सूर्यप्रभ नामक कल्पवासी देवके देखनेसे जातिस्मरण हो गया । उसी समय वहाँ दो चारण मुनि आकाश मार्गसे नीचे आये । उनको नमस्कार करके वज्रजंघ आर्य बोला कि आप दोनों के ऊपर 1 मुझे मोह क्यों हो रहा है ? इसके उत्तरमें उनमें से प्रीतिंकर मुनि बोले कि जब तुम महाबल हुए थे तच तुम्हारा मन्त्री स्वयंबुद्ध तपके प्रभावसे सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । फिर वहाँ से आकर इसी पूर्व विदेहमें पुण्डरीकिणी पुरके राजा प्रियसेन और रानी सुन्दरीके मैं प्रीतिंकर हुआ हूँ ? यह प्रीतिदेव नामका मेरा छोटा भाई है । तपके प्रभावसे हम दोनों को चारण ऋद्धि और अवधि I १. फ उभयसौख्यं । २. प ब देते । पुत्रा फ तदैव ते पुत्रा श तदैति पुत्रा । ३. व च्युतवीरारक्षाश्चरमांगा । ४. ज अत्रैवार्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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