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________________ २४८ पुण्याखवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : समाधिना महाशुक्रं गतौ। तस्मादुत्तीर्य धातकीखण्डापरमन्दरपूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरोकिणीपुरेशधनंजयस्य द्वे देव्यो जयावतीजयसेने। तयोः क्रमेण महाबलातिबलौ सुतो बलदेववासुदेवी जातो । तौ राजानौ कृत्वा धनंजयस्तपसा मोक्षं ययौ। तौ महामण्डलिकार्ध चक्रिणी भूत्वा सुखेन तस्थतुः । अतिबले मृते महाबलः समाधिगुप्तमुनिसमीपे तपसा प्राणते पुष्पचूडाख्यो देवो जशे । ततः समेत्य धातकीखण्डपूर्वमन्दरपूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये प्रभावतीपुरीशमहासेनवसुंधर्योः सुतो जयसेनो भूत्वा राज्ये स्थितः सकलचक्रवर्ती जशे बहुकालं राज्यं विधाय सीमंधरान्तिके तपसा षोडशभावनाः संभाव्य प्रायोपगमनेनोपरिमप्रैवेयकं गतः। ततः प्रागत्य पुष्करार्धपश्चिममन्दरपूर्वविदेहे मङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुरेशाजितंजयवसुमत्योर्गर्भावतराणादिकल्याणपुरःसरमयं युगंधरस्वामी जातः। इति निरू. पितं स्मरसि नो वा। श्रीमती बभाणं स्मरामि सर्वम् , कि तु मवल्लभः क्वोत्पन्न इति प्रतिपाद्यतामित्युक्ते उत्पलखेटपुरेशवज्रबाहु-मद्भगिनीवसुंधर्योः पुत्रो वज्रजङ्घनामा जातः । वज्रबाहुरपि ममावलोकनार्थ प्रातरत्रागमिष्यति, वज्रजवोऽप्यागमिष्यति । स पण्डितया होकर उन दोनोंने वहींपर दीक्षा ले ली । वे दोनों आयुके अन्तमें समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर महाशुक्र कल्पमें देव हुए । तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर वे घातकीखण्ड द्वीपके पूर्व विदेहमें जो पुष्कलावती देश है उसके अन्तर्गत पुण्डरीकिणी पुरके राजा धनञ्जयकी जयावती और जयसेना नामकी दो रानियोंके क्रमशः महाबल और अतिबल नामके पुत्र हुए। वे क्रमसे बलदेव और नारायण पदके धारक थे । राजा धनञ्जयने उन्हें राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। अन्तमें वह तपके प्रभावसे मुक्तिको प्राप्त हुआ। वे दोनों मण्डलीक और अर्धचक्री होकर सुखपूर्वक स्थित रहे । पश्चात् अतिबलका मरण हो जानेपर महाबलने समाधिगुप्त मुनिके पासमें दीक्षा ग्रहण कर ली । वह तपके प्रभावसे प्राणत स्वर्गमें पुष्पचूड नामका देव हुआ। तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मन्दर सम्बन्धी पूर्व विदेहमें जो वत्सकावती देश है उसमें स्थित प्रभावती पुरके राजा महासेन और रानी वसुंधरीके जयसेन नामक पुत्र हुआ। वह क्रमशः राजा और फिर सकलचक्रवर्ती हुआ । बहुत समय तक राज्य करनेके पश्चात् उसने सीमंधर स्वामीके निकटमें दीक्षित होकर दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिंतन किया। अन्तमें वह प्रायोपगमन संन्यासपूर्वक उपरिम अवेयकमें अहमिन्द्र हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुष्करार्धद्वीपके पश्चिम मन्दर सम्बन्धी पूर्वविदेहमें जो मंगलावती देश है उसके अन्तर्गत रत्नसंचय पुरके राजा अजितंजय और रानी वसुमतीके गर्भावतरण आदि कल्याणकोंके साथ ये युगंधर स्वामी हुए हैं। इस प्रकार जो उक्त गणधरने उस समय कहा था उसका तुझे स्मरण आता है कि नहीं ? इसके उत्तरमें श्रीमतीने कहा कि इस सबका मुझको स्मरण है । परन्तु मेरा वह प्रियतम कहाँपर उत्पन्न हुआ है, यह मुझे बतलाइये । इस प्रकार श्रीमतीके पूछनेपर वज्रदन्तने कहा कि वह उल्पलखेट पुरके राजा वज्रबाहु और मेरी बहिन (रानी) वसुंधरीके वज्रजंघ नामका पुत्र हुआ है । वज्रबाहु भी मुझसे मिलनेके लिए यहाँ कल प्रातःकालमें आवेगा । साथमें वज्रजंघ भी आवेगा। उसे १. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जातो ततो तो। २. फ पुष्पचूलाख्यो। ३. ज प व श विदेह । ४. ज प बश विषय । ५. श श्रीमतिर्बभाण । ६. ज प श वसुंदर्योः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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