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________________ : ६-२, ४३] ६. दानफलम् २ २४७ पूजयित्वा पिहितपापास्रवोऽभूदिति पिहितास्वाभिधोऽभूत् सकलचक्री च । तेनैवाच्युतेन्द्रण संबोधितः सन् स्वसुतं स्वपदे व्यवस्थाप्य विंशतिसहस्रराजपुत्रैर्मन्दर धैर्यान्तिके दीक्षितश्चारणोऽजनि । पञ्चशतचारणैरम्बरतिलकगिरौ स्थितस्त्वया निर्नामिकया वन्दितः । सोऽन्युतेन्द्र आगत्य यशोधरतीर्थकद्वसुमत्योरहं जातो ललिताङ्गो भूत्वा मां बलदेवं संबोधितवानिति पिहितास्रवो ममापि गुरुः । श्रीप्रभविमाने यो यो ललिताङ्गः समुपजातः स समयाच्युतेन्द्रण तत्र नीत्वा पूजितः इति । त्वदीयं ललिताङ्गमभ्यन्तरीकृत्य द्वाविंशतिललिताङ्गाः पूजिताः। त्वमपि जानासि । किं च पिहितास्रवभट्टारकस्य केवलनिर्वाणपूजे [ पूजने ] त्वया मया ललिताङ्गादिसवः सुरैरम्बरतिलकगिरौ विहिते अपरमपि साभिज्ञानम् । त्वदीयो ललिताङ्गस्त्वं स्वयंप्रभा ब्रह्मेन्द्रो लातवेन्द्रोऽहमव्युतेन्द्र इत्यस्माभिः सर्वैः संभूय युगंधरतीर्थकृच्चरितं तद्गणधरः पृष्ठः । स श्राह जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये सुसीमानगरेशाजितंजयस्य प्रधानममितगतिर्भार्या सत्यभामा पुत्रौ प्रहसितविकसितौ शास्त्रमदोद्धतौ। तत्पुरमागतं मतिसागरमुनि वन्दितुं गतो राजा ! तो तेन सह गत्वा मुनिना वादं चक्रतुः । पराजितौ भूत्वा तत्र दीक्षिती। सुप्रभा सुदर्शना आर्यिकाके समीपमें दीक्षित होकर तपके प्रभावसे अच्युत स्वर्गमें देव हुई । अजितंजय अभिनन्दन केवलीकी पूजा करके पापास्रवसे रहित हुआ। इसलिए उसका नाम पिहितास्रव हुआ, वह क्रमसे सकल चक्रवर्ती हुआ। तत्पश्चात् उसी अच्युतेन्द्रसे सम्बोधित होकर उसने अपने पुत्रको राज्य देकर बीस हजार राजकुमारोंके साथ मन्दरधैर्य ( मन्दरस्थविर ) नामक मुनिराजके समीपमें दीक्षा ले ली। वह चारण ऋद्धिका धारी हो गया। जब वह पाँच सौ चारणमुनियों के साथ अम्बरतिलक पर्वतके ऊपर स्थित था तब तूने निर्नामिकाके भवमें उसकी वंदना की थी। वह अच्युतेन्द्र वहाँसे आकर यशोधर तीर्थकर और वसुमतीका पुत्र में हुआ हूँ। पिहितास्रवने ललितांगके भवमें मुझ वलदेवको सम्बोधित किया था, इसलिए वह पिहितास्रव जैसे तेरा गुरु है वैसे ही मेरा भी गुरु हुआ। उस श्रीप्रभ विमानमें जो जो ललितांग देव हुआ उस उसकी मैंने अच्युतेन्द्रके रूपमें वहाँ ले जाकर पूजा की थी। तेरे ललितांगको गर्भित करके मैंने बाईस ललितांगोंकी पूजा की है। यह तू भी जानती है। और क्या तुझे यह स्मरण है कि जब पिहितास्रव भट्टारकको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था तब तूने, मैंने और ललितांग आदि सब देवोंने अम्बरतिलक पर्वतके ऊपर उनकी पूजा की थी। यह अन्य भी एक अभिज्ञान ( चिह्न ) है- उस समय तेरा ललितांग, तू स्वयंप्रभा, ब्रह्मन्द्र, लान्तवेन्द्र और मैं अच्युतेन्द्र; इस प्रकार हम सबने मिलकर युगंधर तीर्थकरके चरित्रके विषयमें उनके गणधरसे पूछा था, जिसके उत्तरमें उन्होंने यह कहा था जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देश है । उसके अन्तर्गत सुसीमा नगरीमें अजितंजय राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम सत्यभामा था । इनके प्रहसित और विकसित नामके दो पुत्र थे, जो शास्त्र विषयक ज्ञानके मदमें चूर रहते थे । राजाके मन्त्रीका नाम अमितगति था। एक समय राजा नगरमें आये हुए मतिसागर नामक मुनिकी वंदना करनेके लिए गया। उसके साथ जाकर उन दोनों पुत्रोंने मुनिसे शास्त्रार्थ किया, जिसमें वे पराजित हुए । इससे विरक्त १. श पूज । २. श ललितांगस्तं । ३. फ तद्गुणधरः । ४. ज प श विदेह । ५. जप का विषय । ६. ज प ब गतराजेन गत्वा श गतौ राजा तेन सह गत्वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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