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________________ पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [६-२, ४३ : सहस्रराजभिः युगंधरान्तिके' प्रव्रज्याच्युतेन्द्रो जातस्तेन कृतोपकारस्मरणार्थ स ललिताङ्गदेवः प्रीतिवर्धनविमानेन स्वकल्पं नीत्वा पूजितः। स ललिताङ्गः ततश्च्युत्वात्रैव द्वीपे मङ्गला. वतीविषये विजया|त्तरश्रेण्यां गन्धर्वपुरेशवासवप्रभावत्योः सुतो महीधरो जातस्तं राज्ये निधाय वासवो बहुभिररिंजयान्ते दीक्षितः क्रमेण मुक्तिमगमत् । प्रभावती पद्मावतीक्षान्तिकाभ्यासे प्रवज्याच्युते प्रतीन्द्रोऽभूत् । पुष्करार्धे पश्चिममन्दरपूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये प्रभाकरीपुर्या विनयंधरभट्टारकस्य कैवल्योत्पत्तौ सर्वे देवास्तत्पूजार्थमागताः, महीधरोऽपि तन्मन्दरस्थजिनालयपूजार्थ गतोऽच्युतेन्द्रण तं दृष्ट्रोक्तं हे महीधर, मां जानासि । नेत्युक्ते त्वं यदा मनोहरी जातासि तदा ते पुत्रः श्रीवर्माहम् । त्वं च ललिताङ्गो भूत्वा मां संबोधितवांस्ततोऽहमच्युतेन्द्रोऽभवम् । त्वं तत्र नीत्वा पूजितोऽसि । सोऽहमच्युतेन्द्र इति । ततो महीधरो जातिस्मरो भूत्वा स्वसुतं महीकम्पं स्वपदे निधाय जगन्नन्दनान्तिके दीक्षितः प्राणतेन्द्रोऽभूत् । ततः आगत्य धातकीखण्डे पूर्वमन्दरापरविदेहगन्धिलविषये ऽयोध्याधिपजय. वर्मसुप्रभयोः पुत्रोऽजितंजयोऽभूत् । तं राज्ये निधाय जयवर्माऽभिनन्दनान्तिके प्रव्रज्य मुक्तिमाप। सुप्रभा सुदर्शनार्जिकान्ते तपसाच्युते देवोऽभूत् । अजितंजयोऽभिनन्दन केवलिनं धित किया । इससे प्रबोधको प्राप्त होकर उसने अपने पुत्र भूपालको राजाके पदपर प्रतिष्ठित करते हुए युगंधर तीर्थंकरके निकटमें दस हजार राजाओंके साथ दीक्षा ले ली। अन्तमें वह शरीरको छोड़कर अच्युत स्वर्गमें इन्द्र हुआ । उसे जब ललितांगके द्वारा किये गये उपकारका स्मरण हुआ तव वह ईशान कल्पमें जाकर उस ललितांग देवको प्रीतिवर्धन विमानसे अपने कल्पमें ले आया । वहाँ उसने उसकी पूजा की। वह ललितांग देव वहाँसे च्युत होकर इसी जम्बूद्वीपके भीतर मंगलावती देशमें स्थित विजयाध पर्वतकी दक्षिणश्रेणिगत गन्धर्वपुरके राजा वासव और रानी प्रभावतीके महीधर नामका पुत्र हुआ। उसको राज्य देकर वासव राजाने अरिंजय मुनिके समीपमें दीक्षा ले ली। वह क्रमसे मुक्तिको प्राप्त हुआ। प्रभावती रानी पद्मावती आर्यिकाके निकटमें दीक्षित होकर अच्युत कल्पमें प्रतीन्द्र हुई। पुष्करार्धद्वीपके पश्चिम मेरु सम्बन्धी पूर्वविदेहमें जो वत्सकावती देश है उसके भीतर स्थित प्रभाकरी पुरीमें विनयंधर भट्टारकके केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर सब देव उनकी पूजाके लिए आये । महीधर भी उस मेरु पर्वतके ऊपर स्थित जिनालयोंकी पूजाके लिए गया था । उसको देखकर अच्युतेन्द्रने पूछा कि हे महीधर ! तुम क्या मुझे जानते हो ? महीधरने उत्तर दिया कि नहीं। इसपर अच्युतेन्द्रने कहा कि जब तुम मनोहरी हुए थे तब तुम्हारा पुत्र मैं श्रीवर्मा था । तुमने ललितांग होकर मुझे सम्बोधित किया था। इससे मैं अच्युतेन्द्र हुआ हूँ। मैंने अच्युत कल्पमें ले जाकर तुम्हारी पूजा की थी। मैं वही अच्युतेन्द्र हूँ । इस पूर्व वृत्तान्तको सुनकर महीधरको जातिस्मरण हो गया। तब उसने अपने पुत्र महीकम्पको राज्य देकर जगन्नन्दन नामक मुनिराजके समीपमें दीक्षा ले ली। वह मरकर प्राणतेन्द्र हुआ। वहाँ से च्युत होकर वह धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरु सम्बन्धी अपरविदेहगत गन्धिला देशमें जो अयोध्यापुरी है उसके राजा जयवर्मा और रानी सुप्रभाके अजितंजय नामका पुत्र हुआ। उसको राज्य देकर वह जयवर्मा अभिनन्दन मुनिके पासमें दीक्षित हो गया। अन्तमें वह मुक्तिको प्राप्त हुआ । रानी १. ब युगंधरीतिके। २. ज ब श विषय । ३ जप बश विषय। ४. ज प ब श विषया। ५. ब यो भवत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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