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________________ २४२ पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-२,४३ : भविष्यामीति कृतनिदानो महाबलोऽभूदिति भोगांस्त्यक्तुं न शक्नोति । किं चातीतरात्रौ स्वप्ने ऽद्राक्षीत्। किमित्युक्ते महामत्यादिभिस्त्रिभिधृत्वातिकुथितकर्दमे मजितम् , त्वयाकृष्य संस्नाप्य सिंहासने उपवेश्य पूजितं चात्मानं तव कथयितुं त्वामवलोकयन्नास्ते। यावत्स न कथयति तावत्त्वमेव कथय यथा स धर्म गृहीष्यति । किं च तस्य मास एवायुरिति श्रुत्वा तौ नत्वा संगम्य मन्त्री तथैवाकथयत्तदातिवैराग्यपरो जज्ञे। स्वपुत्रमतिबलं स्वपदे निधाय सर्वजिनालयेष्वष्टाह्निकी पूजां विधाय सिद्धकूटं गत्वा परिजनं विसृज्य स्वरांबुद्धोपदेशक्रमेण केशानुत्पाटय प्रायोपगमनसंन्यासनेन द्वाविंशतिदिनैः शरीरं विहायशाननाके स्वयंप्रभविमाने ललिताङ्गनामा महर्द्धिको देवोऽभूत् । तस्य स्वयंप्रभाकनकमालाकनकलताविद्युल्लताख्याश्वतस्रो महादेव्यस्तस्य द्विसागरोपमायुमध्ये पञ्च-पञ्चपल्येषु तासु बहीषु गतास्ववसाने पञ्चपल्यायुषि स्थिते या स्वयंप्रभा देवी बभूव सा तस्यातिवल्लभा जाता। तया सुखेन तस्थौ । षण्मासायुषि स्थिते मरणचिह्न सति महादुःखी बभव । देवैः संबोधितः सन् समचित्तेन तनुं बलने निदान किया कि इस तपके प्रभावसे मैं विद्याधर होऊँगा । इसी निदानके कारण वह महाबल होकर विषयभोगोंको छोड़नेके लिए असमर्थ हो रहा है । परन्तु आज रात्रिमें उसने स्वप्नमें देखा है कि उसे महामति आदि तीन मन्त्रियोंने पकड़कर दुर्गन्धयुक्त कीचड़में डुबा दिया है। उसमेंसे निकालकर तुमने उसे स्नान कराते हुए सिंहासनपर बैठाया और पूजा की। अपने इस स्वप्नके वृत्तान्तको सुनानेके लिए वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। जब तक वह उस स्वप्नके वृत्तान्तको तुम्हें नहीं सुनाता है तब तक तुम उसके पहिले ही उस स्वप्नके वृत्तान्तको कह देना। इससे वह दृढ़तापूर्वक धर्मको ग्रहण कर लेगा। अब उसकी आयु केवल एक मासकी ही शेष रही है। इस वृत्तान्तको सुनकर स्वयम्बुद्धने उन दोनों मुनियोंको नमस्कार किया और अपने नगरको वापिस चला गया। वहाँ पहुँचकर उसने महाबल राजासे उस स्वप्नके वृत्तान्तको उसी प्रकारसे कह दिया। इससे वह अतिशय वैराग्यको प्राप्त हुआ। तब उसने अपने पुत्र अतिबलको राजपदपर प्रतिष्ठित किया और फिर सर्व जिनालयोंमें जाकर अष्टाहिक पूजा की। तत्पश्चात् सिद्धकूटके ऊपर जाकर उसने परिजनको विदा किया और स्वयम्बुद्धके उपदेशानुसार केशलोंच करते हुए दीक्षा ले ली। दीक्षाके साथ ही उसने प्रायोपगमन सन्यासको भी ग्रहण कर लिया। इस प्रकारसे वह बाईस दिनमें शरीरको छोड़कर ईशान कल्पके अन्तर्गत स्वयंप्रभ विमानमें ललितांग नामका महद्धिक देव हुआ। उसके स्वयंप्रभा, कनकमाला, कनकलता और विद्युल्लता ये चार महादेवियाँ थी। आयु उसकी दो सागरोपम प्रमाण थी । इस बीच पाँच-पाँच पल्योंकी आयुमें उसकी वे बहुत-सी देवियाँ मरणको प्राप्त हो गई। अन्तमें जब उसकी पाँच पल्य मात्र आयु शेष रह गई तब स्वयंप्रभा नामकी जो देवी उत्पन्न हुई वह उसे अतिशय प्यारी हुई। उसके साथ वह सुखपूर्वक स्थित रहा। तत्पश्चात् छह मास प्रमाण आयुके शेष रह जानेपर जब मरणके चिह्न दिखने लगे तब वह बहुत दुःखी हुआ। उसकी वैसी अवस्था देखकर सामानिक देवोंने उसे सम्बोधित किया। तब वह समचित्त होकर-विषादको १.पश मथितं। २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श सर्वजिनालये अष्टाह्निकी। ३. प सन्न सम फ सनसम श सन्तसम। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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