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________________ : ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २ निष्क्रान्तो माहेन्द्रस्वर्गेऽजनि । अतिबलोऽप्येतस्मै राज्यं दत्वा दीक्षितवान् । भस्य कुमारकाले वयं चत्वारोऽप्यनेन मन्दरं क्रीडितमैम। तत्र जिनालयाजिनं पूजयित्वा निर्गच्छन् महेन्द्रकल्पजोऽमुं विलोक्योक्तवान् 'मन्नता त्वम्' इति, दिव्यवस्त्रादिकमदत्त । स एतैरपि दृधः । किं च त्वत्पितुः केवलपूजार्थं जातदेवागमो ऽस्माभिः सर्वैरपि दृष्टः । इत्यनेकधा जीवसिद्धिं कृत्वा महाबलदत्तजयपत्रं जग्राह । महाबलस्तथापि धर्म नागच्छत्यतिवृद्धोऽजनि । एकदा स्वयं बुद्धो मन्दरमियाय । तत्र जिनालयान् पूजयित्वा स्वपुरगमनमना यदाभूत्तदा तत्रैव पूर्वविदेहे. सीताया उत्तरतटस्थकच्छाविषयारिष्टपुरस्थयुगंधरतीर्थकरसमवसरणात्तत्रादित्यगति-अरिंजयचारणावतीरें । तौ नत्वा मन्त्री पप्रच्छ-महाबलः किमिति धर्म न गृहाति । मुनिराहातीतभवं कथयामि-अत्रैव विषये आर्यखण्डे सिंहपुरेशश्रीषेणसुन्दोः पुत्रौ जयवर्मा-श्री. वर्माणौ । प्रव्रजता श्रीषेणेन जयवर्मा धीमान् न भवतीति श्रीवर्मा राजा कृतः। जयवर्मा वैराग्येण स्वयंप्रभाचार्यान्ते दीक्षितः । केशान् बिलाभ्यन्तरे निक्षिपन् सर्पदष्टोऽजनि । तदवसरे विभृत्या विमानमारुह्य गच्छन्तं महीधरखेचरं विलुलोके। तपःप्रभावेनाहं विद्याधरो दीक्षित हो गया था। वह मरणको प्राप्त होकर माहेन्द्र स्वर्गमें देव हुआ। अतिबलने भी इसके लिए (महाबलके लिए) राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली है। इसकी कुमारावस्थामें हम चारों ही इसके साथ क्रीड़ा करनेके लिए मन्दर पर्वतके ऊपर गये थे। वहाँ जिनालयमें-से जब यह जिनपूजा करके आ रहा था तब महेन्द्र स्वर्गका वह देव इसको देखकर बोला कि तुम मेरे नाती हो । फिर उसने इसे दिव्य वस्त्रादि दिये । उक्त देवको इन सबने भी देखा था। इसके अतिरिक्त जब तुम्हारे पिताको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था तब उनकी पूजाके लिए आते हुए देवोंको हम सबने ही देखा था । उक्त प्रकारसे स्वयम्बुद्ध मंत्रीने अनेक युक्तियोंके द्वारा जीवकी सिद्धि करके महाबलके द्वारा दिये गये जयपत्र ( विजयके प्रमाणपत्र ) को प्राप्त किया। किन्तु फिर भी महाबल धर्ममें दृढ़ नहीं हुआ। वह अनुक्रमसे अतिशय वृद्ध हो गया था। एक समय स्वयम्बुद्ध मन्दर पर्वतपर गया । वह जिनालयों की पूजा करके जैसे ही अपने नगरकी ओर आनेको उद्यत हुआ वैसे ही युगंधर तीर्थकरके समवसरणसे आदित्यगति और अरिंजय नामके दो चारण ऋषि आकाशमार्गसे नीचे आये। उस समय युगंधर तीर्थकरका समवसरण पूर्वविदेहके भीतर सीता नदीके उत्तर तटपर स्थित कच्छा देशमें अरिष्टपुरको सुशोभित कर रहा था । उनको नमस्कार कर स्वयम्बुद्धने पूछा कि प्रभो ! महावल धर्मको ग्रहण नहीं कर रहा है, इसका कारण क्या है। उत्तरमें मुनि बोले कि मैं महाबलके पूर्व भवके वृत्तान्त कहता हूँ-- इसी देशमें आर्यखण्डके भीतर एक सिंहपुर नामका नगर है। उसमें श्रीषेण नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम सुन्दरी था। उनके जयवर्मा और श्रीवर्मा नामके दो पुत्र थे। इनमें बड़ा पुत्र जयवर्मा बुद्धिहीन था। इसीलिए श्रीषेणने दीक्षा लेते समय जयवर्माको राजा न बनाकर श्रीवर्माको राजा बनाया था। इससे विरक्त होकर जयवर्मा स्वयम्प्रभाचार्यके समीपमें दीक्षित हो गया । उसे बालोंको बिलके भीतर रखते समय सर्पने काट लिया था। इसी समय एक महीधर नामका विद्याधर विमानमें बैठकर विभूतिके साथ वहाँसे जा रहा था। उसे देखकर महा १.प मंदिरं। २. क्रीडितुं गत्वा मम तत्र फश क्रीडितुं गत्वान्वैम तत्र । ३. फ श जातः देवागमो। ४. बं स्वपुरमागमनाय यदाभूत्तदात्रैव । ५. ब शरणातत्रा । ६. श सिंहिपुरेश । ७. श ऽजने । ८. ब मगधर। ९. ब एतत्तपः । Jain Education Inational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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